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________________ सूत्र ४ ०-४१ । ] सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ११३ प्रदेशों की संख्याका कोई नियम नहीं है । क्योंकि औदारिककी उत्कृष्ट अवगाहना के शरीर में जितने प्रदेश हैं, उनसे भी वैक्रियकी जघन्य अवगाहनाके शरीरके प्रदेश असंख्यातगुणे हैं । तथा उत्कृष्ट अवगाहनावाले वैकियशरीर के प्रदेशों से आहारकशरीरके प्रदेश असंख्यातगुणे हैं । आहारकशरीरका प्रमाण एक हस्तमात्र ही होता है । जिस प्रकार समान परिमाणवाले रुई काष्ठ पत्थर और लोहे के गोले के प्रदेशों में उत्तरोत्तर अधिकाधिकता है, उसी प्रकार प्रकृतमें भी समझना चाहिये | अन्तर इतना ही है, कि इन शरीरोंके प्रदेश उत्तरोत्तर सूक्ष्म भी हैं । सूक्ष्मसूक्ष्मतर होकर भी इनके प्रदेश अधिकाधिक हैं, यही इनकी विशेषता है । 1 तैजसशरीरके पहले शरीरोंके प्रदेश असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे हैं, यह बात मालूम हुई, परन्तु तैजस और कार्मणशरीर के प्रदेशों में क्या विशेषता है, सो नहीं मालूम हुई । अतएव उसको बताने के लिये सूत्र कहते हैं: सूत्र - अनन्तगुणे परे ॥ ४० ॥ भाष्यम्--परे द्वे शरीरे तैजसकार्मणे पूर्वतः पूर्वतः प्रदेशार्थतयाऽनन्तगुणे भवतः । आहारकात्तैजसं प्रदेशतोऽनन्तगुणं, तैजसात्कार्मणमनन्तगुणमिति । अर्थ — अन्तके तैजस और कार्मण ये दो शरीर प्रदेशों की अपेक्षासे आगे आगे के पहले पहले से अनन्तगुणे अनन्तगुणे हैं । अर्थात् आहारशरीर के जितने प्रदेश हैं, उनसे तैजसशरीर के प्रदेश अनन्तगुणे हैं, और जितने तैजसशरीर के प्रदेश हैं, उनसे अनन्तगुणे कार्मणशरीर प्रदेश हैं । भावार्थ - तेजस और कार्मणशरीर के प्रदेशोंका प्रमाण निकालने के लिये अनन्तका गुणाकार है । आहारकसे तैजस और तैजससे कार्मणके प्रदेश अनन्तगुणे हैं, किंतु फिर भी ये दोनों शरीर उत्तरोत्तर सूक्ष्म सूक्ष्मतर हैं । इसके सिवाय अन्तके इन दो शरीरोंमें और भी जो विशेषता है, उसको बताने के लिये सूत्र कहते हैं । - सूत्र - अप्रतिघाते ॥ ४१ ॥ भाष्यम् - एते द्वे शरीरे तैजसकार्मणे अन्यत्र लोकान्तात्सर्वत्रा प्रतिघाते भवतः । अर्थ:-- उपर्युक्त विशेषता के सिवाय तैजप्स और कार्मण इन दो शरीरोंमें एक और भी विशेषता है । वह यह कि - ये दोनों ही शरीर अप्रतिघात हैं- ये न तो किसीको रोकते ही हैं, और न किसीसे रुकते ही हैं - वज्रपटलके द्वारा भी इनकी गति प्रतिहत नहीं हो सकती। किंतु उनका यह अप्रतिघात सम्पूर्ण लोकके भीतर ही है । लोकके अन्तमें ये प्रतिहत हो जाते हैं। क्योंकि जीव और पुद्गल द्रव्यकी गति तथा स्थितिको कारणभूत धर्म और अधर्म द्रव्य हैं, जोकि १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001680
Book TitleSabhasyatattvarthadhigamsutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKhubchand Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1932
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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