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________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 120 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि पडिक्कमामि - "मैं प्रतिक्रमण करता हूँ"- इस कथन का अर्थ प्रारम्भ से लेकर पर्यन्त तक जो-जो दोष बताए गए हैं, उस सम्बन्ध में मेरे जो दुष्कृत्य हैं, उनका प्रतिक्रमण करता हूँ। यहाँ “पडिक्कमामि" शब्द का कथन सभी जगह करें। “पडिक्कमामि दोहिं बंधणेहिंरागबंधणेणं, दोसबंधणेणं।" भावार्थ - दो प्रकार के बन्धनों, अर्थात् रागबन्धन एवं द्वेषबन्धन से लगे दोषों का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। विशिष्टार्थ - . रागबंधणेणं, दोस-बंधणेण - जीवों के प्रति इष्टभाव के होने से जो स्नेह-संबंध होता है, उसे राग कहते हैं। इसी प्रकार उनके प्रति अनिष्ट भावों के आने से द्वेष होता है। सद्भाव के अभाव तथा विनाश की बुद्धि को द्वेष कहते हैं और ये दोनों ही (राग एवं द्वेष) बन्धन के हेतु हैं। हेतु के लिए सर्वत्र तृतीया विभक्ति का प्रयोग होता है। जीवों को आठ प्रकार के कमों से अलग-अलग संबंध होता है, राग और द्वेष के कारण इन आठ कर्मों से जीव बंधन में आता है। “पडिक्कमामि तिहिं दंडेहि-मणदंडेणं, वयदंडेणं, कायदडेणं ।" भावार्थ - तीन प्रकार के दण्डों, अर्थात् मनदंड, वचनदंड एवं कायादंड से लगने वाले दोषों का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। विशिष्टार्थ - तिहिं दंडेहिं - जो आत्मा को दण्डित करता है। जिससे जीव पुनर्बन्धन को ग्रहण करके आत्मा के सत्व को कुण्ठित करता है, उन्हें दण्ड कहते हैं। वे मन, वचन और काया की अपेक्षा से तीन प्रकार के हैं। मणदंडेहिं - मन के बुरे विचारों से जिन कर्मों का बंध होता है, उसे मनदंड कहते हैं। वयदंडेहिं - अप्रिय-असत्य वचन एवं निंदा आदि द्वारा जिन कमों का बंध होता है, उसे वचनदण्ड कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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