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________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) ___60 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि हैं। जो वापस (पुनः) संसाररूपी कीचड़ में उत्पन्न नहीं होते हैं, वे अरूहंत कहलाते हैं, अथवा जिनके लिए जगत् में जानने जैसा कुछ भी रह नहीं गया हैं, जिनके केवल ज्ञान, दर्शन से कुछ भी छिपा नहीं है, वे अरहन्त कहलाते हैं। भगवंताणं - भगवंत शब्द का तात्पर्य ऐसे व्यक्ति से है, जो ज्ञान, माहात्म्य, यश, वैराग्य, मुक्ति, वीर्य, श्री, धर्म एवं ऐश्वर्य से युक्त हो। आइगराणं - अपने-अपने तीर्थों (समय में) में सर्वप्रथम धर्म, आगम, गणधर एवं संघ की स्थापना करने के कारण परमात्मा को आगम, गणवाले कहा है। रूप चतुर्विध तित्थयराणं - तीर्थरूप चतुर्विध श्रमणसंघ या प्रथम गणधर की स्थापना करने के कारण तीर्थकर कहा गया है। ___ सयंसंबुद्धाणं - अन्य किसी गुरु के उपदेश के बिना स्वयं ही आत्म-अवबोध को प्राप्त करने के कारण उन्हें स्वयंसंबुद्ध कहा है। पुरिसुत्तमाणं - पुरुषों में बल, कांति, श्रुत एवं ज्ञान - इन सब के प्रभावों एवं अतिशयों से सर्वोत्तम होने के कारण उन्हें पुरुषोत्तम कहा गया है। पुरिससीहाणं - जिस प्रकार सिंह तिर्यंच पशुओं में अत्यन्त बलशाली होता है, उसी प्रकार पुरुषों में अतिशय बल को धारण करने के कारण उन्हें पुरुष सिंह कहा गया है। पुरिसवर पुण्डरीयाणं - श्वेत कमल कीचड़ में उत्पन्न होता है, जल से वृद्धि को प्राप्त करता है, फिर भी उन दोनों को छोड़कर उनसे ऊपर रहता है। उसी प्रकार भगवान् भी संसाररूपी कीचड़ में उत्पन्न होते हैं और भोगरूपी जल से वृद्धि को प्राप्त करते हैं, किन्तु फिर भी उन दोनों से अलिप्त रहते हैं, इसलिए उन्हें पुरुषवर पुण्डरीक कहा गया है। पुरिसवर गन्धहत्थीणं - पुरुषों में श्रेष्ठ, प्रधान, बलवान्, सर्वऋद्धिशाली, सर्वोत्कृष्ट एवं स्वभाव में रमण करने के कारण तथा गन्धहस्ती के समान ही दूसरों के बल का पराभव करने के कारण उन्हें पुरुषवरगन्धहस्ती कहा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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