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________________ 28 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री चौदहवें प्रतिद्वार में भावों की महिमा बताई गई है एवं भावपूर्वक दिए गए दानादिक की सफलता का निर्देश करते हुए इसमें जीर्णसेठ, बलदेव के हिरण के भव की कथा दी गई है। भावशून्यदानादि की निष्फलता का निर्देश करते हुए अभिनव सेठ का प्रबन्ध तथा शील एवं तप के विषय पर करकंडु मुनि का एवं मरुदेवा माता का प्रबन्ध दिए गए हैं। इसके पश्चात् बारह भावनाओं का वर्णन है, उसमें अनित्य भावना पर नग्गति राजा का प्रबन्ध, अशरणभावना पर श्रेष्ठिपुत्र की कथा, संसारभावना पर तापससेठ का उदाहरण, एकत्वभावना पर श्री वीरप्रभु का चरित्र, अन्यत्वभावना पर शिवराजर्षि का दृष्टान्त, एवं बोधिदुर्लभ-भावना पर वणिकपुत्र का दृष्टान्त है। अन्त में सुगुरु की दुर्लभता एवं सुगुरु के गुणों का विशद वर्णन प्रस्तुत है। पन्द्रहवें शीलपालन-प्रतिद्वार में निश्चय शील का अर्थ आत्मरमण एवं व्यवहार से शील का अर्थ संवर और चारित्र, अथवा समाधि बताया गया है, इसमें शील के स्वरूप एवं उसके लाभों का उल्लेख उपलब्ध होता है। सोलहवें इन्द्रियदमन प्रतिद्वार में इन्द्रियों की उच्छंखलता का निरूपण है तथा इन्द्रियजय से होने वाले लाभों का निर्देश है। पाँचों इन्द्रियों के विषय क्रमशः शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श के सन्दर्भ में अनुक्रम से भद्रासार्थवाह, सार्थवाह की पुत्री, राजपुत्र, सोदास राजा, एवं सोमदेव ब्राह्मण का प्रबन्ध प्रतिपादित है। सतरहवें तपविधान प्रतिद्वार में बाह्य-आभ्यन्तर-तप में उद्यम करने का निरूपण है। साथ ही तप-शक्ति को छिपाने से वीर्यान्तराय एवं माया करने से मोहनीय-कर्म का बन्ध एवं सुखशीलता से अशातावेदनीय का और प्रमाद करने से चारित्रमोहनीय का, इत्यादि कर्मो के बन्ध होने का निरूपण है; इसमें तप करने से विशिष्ट लाभ का निर्देश है, तथा जीवन में तप की अनिवार्यता का निरूपण किया गया है। अन्तिम अठारहवें निःशल्यता-प्रतिद्वार में शल्य के तीन प्रकार की चर्चा करते हुए निदान शल्य के तीन प्रकारों का उल्लेख है- १. रागद्वेष और मोहकृत २. अप्रशस्त-प्रशस्तभावकृत और ३. भोगकृत । शल्य के प्रकारों का निर्देश करने के पश्चात् इसमें संयम के लिए निदानशल्य प्रशस्त होने पर भी मुनि के लिए इस शल्य की हेयता का निर्देश किया गया है। इसमें मोहशल्य पर ब्रह्मदत्त की कथा, मायाशल्य पर महापीठ का प्रबन्ध एवं मिथ्यात्वशल्य पर नन्दमणियार का प्रबन्ध है। अन्त में शल्य रखने से होने वाले दोषों का विशद विवेचन किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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