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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 23 के उत्पन्न होने की सम्भावना हो सकती है और इससे आचार्य को अनशन में असमाधि उत्पन्न होती है- ऐसा उल्लेख है। (५) पाँचवें सुस्थित- गवेषणाद्वार में क्षपक को निर्यापक आचार्य की खोज - क्षेत्र से उत्कृष्ट सात सौ योजन एवं काल से उत्कृष्ट १२ वर्ष तक का वर्णन किया गया है तथा निर्यापक आचार्य के आचारवान्, आधारवान्, व्यवहारवान्, अप्रवीडक, प्रकुर्वी, निर्यापक, अपायदर्शी और अपरिश्रावी - इन आठ गुणों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है। (६) छठवें उपसम्पदा -द्वार में क्षपक द्वारा निर्यापक आचार्य से अपनी निश्रा में अनशन विधि स्वीकार करवाने के लिए विनती करने का निरूपण किया गया है तथा निर्यापक आचार्य द्वारा क्षपक को प्रोत्साहित करना एवं अपने साधुओं से क्षपक को स्वीकार करना, अथवा नहीं करना आदि का रोचक विवेचन उपलब्ध है। (19) सातवें परीक्षा-द्वार में क्षपक को निर्यापक आचार्य की एवं निर्यापक आचार्य को क्षपक की योग्यता - अयोग्यता की परीक्षा किस प्रकार करना चाहिए? आदि का उल्लेख है। (८) आठवें प्रतिलेखन-द्वार में अनशन स्वीकार करने वालों की कार्यसिद्धि निर्विघ्न होगी या नहीं? इसे जानने के लिए आचार्य या गुरुपरम्परा से मिले हुए अनुभवों आदि के द्वारा निर्णय करके ही क्षपक को अनशन स्वीकार कराने का उल्लेख है, अन्यथा दोषों की उत्पत्ति की सम्भावना का निर्देश करते हुए इस पर हरिदत्तमुनि का उदाहरण प्रस्तुत किया गया है । (E) नौवें पृच्छा-द्वार में निर्यापक आचार्य स्वगच्छ के साधुओं से यह प्रश्न करते हैं कि शरण में आए हुए क्षपक पर अनुग्रह करें, अथवा नहीं ? इस तरह पूछकर उनकी स्वीकृति के आधार पर ही क्षपक को शरण देने का उल्लेख है। (१०) दसवें प्रतीच्छा-द्वार में यह कहा गया है कि एक निर्यापक आचार्य एक साथ कितने आराधकों को शरण दे सकता है? एवं एक को शरण में रखने के पश्चात् यदि दूसरे या तीसरे क्षपक ( आराधक ) आते हैं, तो उन्हें क्या करना चाहिए? इसका सांगोपांग विवेचन प्रस्तुत किया है। तृतीय ममत्व-विमोचन - मूलद्वार के नौ प्रतिद्वारों का विवेचन : इसके प्रथम आलोचनाविधि - प्रतिद्वार में आलोचना के दस उपद्वारों का विशद विवरण प्रस्तुत किया गया है, जो इस प्रकार से कहे गए हैं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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