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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 15 है। यह उल्लेख संवेगरंगशाला ग्रन्थ की प्रशस्ति गाथा क्रमांक १००५२ और १००५३ में मिलता है। उसके पश्चात् कथारत्नकोश की प्रशस्ति में यह उल्लेख मिलता है कि वज्रीशाखा के आचार्य बुद्धिसागरसूरि के शिष्य जिनचन्द्रसूरि एवं नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि हुए। जिनचन्द्रसूरि ने संवेगरंगशाला नामक आराधना-ग्रन्थ की रचना की थी, उसे प्रसन्नचन्द्रसूरि के सेवक एवं सुमतिवाचकसूरि के शिष्य देवभद्रसूरि ने ११३६ में संस्कारित कर भव्य जीवो के योग्य बनाया। इस उल्लेख से ऐसा लगता है कि सुमतिवाचक के शिष्य देवभद्रसुरि ने इसे संशोधित कर पुनः वि. सं. ११३६ में इसकी प्रतिलिपि तैयार की। ज्ञातव्य है कि यह उल्लेख संवेगरंगशाला की ग्रन्थ प्रशस्ति में न होकर कथारत्नकोश की प्रशस्ति में मिलता है। मुम्बई से जवेरी कान्तिलाल मणिलाल द्वारा प्रकाशित संवेगरंगशाला की ग्रन्थप्रशस्ति में प्राकृतगाथा १००५४ के पश्चात् दी गई संस्कृ तप्रशस्ति में यह लिखा गया है कि श्री जिनचन्द्रसूरिकृत इस संवेगरंगशाला को उनके शिष्य प्रसन्नचन्द्र आचार्य की अभ्यर्थना पर गुणचन्द्रगणि और जिनवल्लभगणि ने इसे संस्कारित और संशोधित कर विक्रम सं. १२०३ की ज्येष्ठ शुक्ल चतुर्दशी गुरुवार को वटप्रद नगर में इसकी प्रतिलिपि तैयार की। इसके पश्चात् संवेगरंगशाला के इस संस्करण में जेसलमेर ग्रन्थ भण्डार की ताडपत्रीय प्रति पर इसकी प्रतिलिपि करने वाले परिवार की २७ श्लोकों में प्रशस्ति दी गई है; वह प्रकाशित है, किन्तु इस प्रशस्ति का सम्बन्ध प्रतिलिपि कराने वाले परिवार के साथ रहा हुआ है, अतः इसका इस प्रति के लेखन और संशोधन से कोई सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता है । ग्रन्थ-प्रशस्तियों के उपर्युक्त विवरण को दृष्टिगत रखते हुए हम यह कह सकते हैं कि सर्वप्रथम सं. ११२५ में जिनचन्द्रसूरि द्वारा लिखित संवेगरंगशाला की यथावत् आदर्श प्रतिलिपि उनके शिष्य जिनदत्तसूरि द्वारा की गई होगी। उसके पश्चात् ११३६ में सुमतिवाचक के शिष्य देवभद्र द्वारा इसे संशोधित कर इसकी प्रतिलिपि तैयार की गई होगी। खरतरगच्छ-पट्टावली में प्रसन्नचन्द्रसूरि और सुमतिवाचक (सूरि) को जिनेश्वरसूरि का शिष्य बताया गया है, किन्तु मणिधारी जिनचन्द्रसूरि अष्टम शताब्दी स्मृतिग्रन्थ' में प्रसन्नचन्द्र और देवभद्र को उपाध्याय सुमति का शिष्य बताया गया है। वास्तविक स्थिति क्या है, यह कहना कठिन है; फिर भी इतना तो निश्चित है कि प्रसन्नचन्द्र चाहे जिनेश्वरसूरि के साक्षात् शिष्य हों या सुमतिवाचक के शिष्य हो, वे आचार्य जिनचन्द्रसूरि के समकालीन ही थे, अतः देवभद्र के द्वारा संवेगरंगशाला संशोधनकाल वि. सं. ११३६ में लिखा गया मणिधारी जिनचन्द्रसूरि अष्टमशताब्दी, पृ. ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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