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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 445 प्रस्तुत कथा का मूल स्रोत देखने का हमने प्रयास किया, किन्तु चूर्णिकाल तक इस कथा का मूल स्रोत हमें ज्ञात नहीं हुआ। सम्भावना यह भी हो सकती है कि यह कथा किसी जैनेतर स्रोत से ग्रहण की गई हो और आचार्यश्री ने उसे अपने ढंग से विषय के अनुरूप परिमार्जित करके लिखा हो। महावीर प्रभु का प्रबन्ध एकत्वभावना का अर्थ है-प्राणी अकेले ही जन्म लेता है, अकेले ही मृत्यु को प्राप्त करता है और अकेला ही अपने शुभाशुभ कमों को भोगता है। मृत्यु के आगमन पर सम्पूर्ण सांसारिक-वैभव तथा कुटुम्ब का परित्याग करके व्यक्ति को अकेले ही यहाँ से प्रयाण करना होता है। आत्मा ही सुख-दुःखरूप कर्मों की कर्ता है और उनके फल भोगती है। यही आत्मा अपने पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय करनेवाली है। श्रेष्ठ आचार से युक्त आत्मा मित्र और दुराचार से युक्त आत्मा शत्रु है। इस सम्बन्ध में संवेगरंगशाला में महावीर प्रभु का प्रबन्ध दृष्टव्य है :-813 क्षत्रियकुण्ड नगर में सिद्धार्थ नामक राजा राज्य करता था। उसका वर्धमान नामक पुत्र था। एक दिन परिजनों एवं राज्य के वैभव को छोड़कर वर्धमान कुमार ने स्वयं पंचमुष्टि लोचकर दीक्षा ग्रहण कर ली। दीक्षा लेकर प्रथम दिन वे बाह्य-उद्यान में कायोत्सर्ग में स्थिर रहे। उस समय एक ग्वाले ने प्रभु से कहा- “हे देवार्य! मैं अभी वापस आता हूँ, तब तक आप मेरे बैलों का ध्यान रखना।" ध्यान में खड़े भगवान् को इस प्रकार कहकर वह ग्वाला वहाँ से चला गया। उस समय भ्रमण करते हुए वे बैल जंगल में प्रवेश कर गए। इधर थोड़ी ही देर में ग्वाला आया। उस स्थान पर बैलों को नहीं पाकर उसने भगवान से पूछा- “हे देवार्य! मेरे बैल कहाँ हैं?" उनके द्वारा प्रत्युत्तर नहीं मिलने पर वह दुःखी होता हुआ बैलों को आस-पास के स्थानों में खोजने लगा, किन्तु उसे बैल नहीं मिले। इधर कुछ समय पश्चात् बैल घास चरकर प्रभु के पास आकर बैठ गए। ग्वाला भी रातभर भटककर वापस वहीं आया। उसने प्रभु के पास अपने बैलों को जुगार करते हुए देखा, जिससे उसने यह निश्चय किया कि इस देवार्य ने ही मेरे बैलों की चोरी करने की इच्छा से इन्हें इतनी देर छिपाकर रखा था, 813 संवेगरंगशाला, गाथा ८६६२-८६८१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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