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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप /9 द्वारा अपने को संविग्नविहारी कहना यही सूचित करता है कि वे चैत्यवास की विरोधी संविग्न शाखा में हुए थे। चूंकि उस समय तक तपागच्छ, अचलगच्छ और आगमिकगच्छ अस्तित्व में नहीं आए थे, अतः अभयदेवसूरि का इनसे सम्बन्धित होना तो स्वीकार्य नहीं हो सकता। यह भी सत्य है कि आचार्य वर्धमानसूरि से जो संविग्न-शाखा निकली थी, वही कालान्तर में खरतरगच्छ के रूप में प्रसिद्ध हुई। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जिनचन्द्रसूरि और अभयदेवसूरि-दोनों उस संविग्न-शाखा के आचार्य रहे हैं, जो आगे चलकर खरतरगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुई। चाहे हम उन्हें स्पष्ट रूप से खरतरगच्छ का स्वीकार न भी करें, तो भी इतना तो मानना ही होगा कि वे उसी संविग्न-शाखा के आचार्य थे, जिसे खरतरगच्छ की पूर्व-परम्परा कहा जा सकता है। अतः, इतना तो निर्विवाद सत्य है कि वे खरतरगच्छ के पूर्वपुरुष तो अवश्य ही रहे हैं, यद्यपि महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागरजी ने अपने ग्रन्थ खरतरगच्छ का आदिकाल का इतिहास में अभयदेवसूरि को अनेक प्रमाणों के आधार पर खरतरगच्छ का आचार्य सिद्ध किया पुनः, यदि अभयदेव खरतरगच्छ के सिद्ध होते हैं, तो उनके गुरुभ्राता जिनचन्द्रसूरि को खरतरगच्छ से सम्बन्धित मानने में कोई भी बाधा नहीं होना चाहिए। खरतरगच्छ की उत्पत्ति के सम्बन्ध में सामान्यतया यह माना जाता है कि आचार्य वर्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि जब अणहिलपुर-पत्तन पहुंचे, तो चैत्यवासियों के प्रभाव के कारण उन्हें नगर में रहने को स्थान भी नहीं मिला। अन्त में राजपुरोहित ने उन्हें अपनी अश्वशाला में ठहरने की अनुमति दी। राजपुरोहित की प्रेरणा से दुर्लभराज की सभा में जिनेश्वरसूरि और चैत्यवासियों के बीच हुए शास्त्रार्थ में वे विजेता रहे, तभी जिनेश्वरसूरि को “खरतर विरुद” से सम्मानित किया। इसी विरुद के कारण आगे चलकर जिनेश्वरसूरि की शिष्य परम्परा खरतरगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुई। जिनेश्वरसूरि के चैत्यवासियों के साथ हुए वाद-विवाद की सूचना हमें अनेक ग्रन्थों में प्राप्त होती है। इससे इस घटना की ऐतिहासिकता सुनिश्चित होती है। साथ ही हम देखते हैं कि इतिहास की दृष्टि से भी जिनेश्वरसूरि का काल वही है, जो दुर्लभराज का काल है। घटना के विवरण में चाहे परवर्ती ग्रन्थों में थोड़ा-बहुत अन्तर हो, किन्तु इस घटना की सत्यता पर सन्देह नहीं किया जा सकता है। विविध ग्रन्थों में इस घटना का काल विक्रम संवत् १०८० बताया गया है। इतिहास के ग्रन्थों के आधार पर दुर्लभराज के पिता चामुण्डराज ने विक्रम संवत् १०५३ से खरतरगच्छ के आदिकालीन इतिहास, पृ.-११६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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