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________________ 422 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री में जो गाढ़ अन्तरायकर्म का बन्ध किया था, वह कर्म उदय में आया। कर्म के दोष से ढंढण्मुनि जिन साधुओं के साथ भिक्षा लेने जाते, उन्हें भी भिक्षा प्राप्त नहीं होती थी। एक समय साधुओं ने उन्हें भिक्षा नहीं मिलने की बात प्रभु से कही। परमात्मा ने ढंढणमुनि के पूर्व कर्मबन्धन का वृत्तान्त सुनाया। यह सुनकर ढंढणमुनि ने परमात्मा के पास अभिग्रह किया कि अब से मैं दूसरों की लब्धि से मिला हुआ आहार कदापि ग्रहण नहीं करूँगा। इस प्रकार ढंढणमुनि, मानों अमृतरूपी श्रेष्ठ भोजन करते हुए तृप्त हुए हो- इस तरह से दिन व्यतीत करने लगे। ___ एक दिन श्रीकृष्ण ने भगवान् से पूछा- "हे भगवन्! इन अठारह हजार साधुओं में सबसे उत्कृष्ट मुनि कौन है?" प्रभु ने कहा- “निश्चय से सभी उत्कृष्ट हैं, लेकिन इनमें भी दुष्करकारी ढंढणमुनि है, क्योंकि धैर्यता को धारण कर दुःसह उग्र अलाभ-परीषह को सम्यक् रूप से सहन करते हुए उनको बहुत समय व्यतीत हो गया है।" यह सुनकर श्रीकृष्ण ने 'वे धन्य हैं और कृतपुण्य हैं, जिनकी प्रभु ने स्वयं प्रशंसा की हैं'- ऐसा विचार किया। नगरी में प्रवेश करते ही उन्होंने भाग्य-योग से ऊँच-नीच घरों में भिक्षार्थ घूमते हुए ढंढणमुनि को देखा। उन्होंने हाथी से उतरकर मुनि का वन्दन किया। श्रीकृष्ण वासुदेव द्वारा मुनि को वन्दन करते हुए देखकर एक धनाढ्य सेठ ने विचार किया- 'यह महात्मा धन्य है, जिसे वासुदेव वन्दन करते हैं।' श्रीकृष्ण के चले जाने के बाद विनयपूर्वक सेठ ने मुनि को अपने घर ले जाकर भावपूर्वक केसरिया मोदक से भरे थाल में से उन्हें मोदक दिए। मुनि ने प्रभु के पास आकर नमन करके कहा- "हे भगवन्त! क्या मेरा अन्तरायकर्म आज खत्म हो गया है?" प्रभु ने कहा- “अभी उसका अंश विद्यमान है। तुम्हें जो भोजन मिला है, वह लब्धि श्रीकृष्ण की है, क्योंकि उस सेठ ने तुम्हें कृष्ण को प्रणाम करते हुए देखकर ही दान दिया है।" प्रभु ने जब ऐसा कहा तो अन्य की लब्धि से प्राप्त होने से उन लड्डुओं को ग्रहण न करके वह मुनि प्रासुक शुद्ध भूमि देखकर उन लड्डुओं को सम्यक् विधि से परठने लगा। मुनि लड्डु परठते हुए अपने कर्मों के कटु विपाकों का चिन्तन करने लगा। इस प्रकार सर्वकर्मों का क्षयकर मुनि ने शुद्ध शुक्लध्यान के प्रभाव से केवलज्ञान प्राप्त किया। इससे यह ज्ञात होता है कि जो व्यक्ति इस जन्म में लाभ प्राप्त कर उसका अभिमान करता है, तो दूसरे भव में उसे उस लाभ में अन्तराय आती है और भिक्षा की प्राप्ति नहीं होती है, अतः मानव को लाभमद नहीं करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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