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________________ 6/ साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री जिनचन्द्रसूरि (प्रथम) का व्यक्तित्व : जिनचन्द्रसूरि के व्यक्तित्व का परिचय वस्तुतः उनकी प्रस्तुत कृति 'संवेगरंगशाला' से ही हो जाता है। त्याग और वैराग्य के भावों से परिपूर्ण इस कृति का प्रणयन वही व्यक्ति कर सकता था, जिसका जीवन स्वयं त्याग और वैराग्य से परिपूर्ण हो। वस्तुतः, जिनचन्द्रसूरि ने न केवल त्याग और वैराग्यपूर्ण इस कृति का प्रणयन किया था, अपितु वे स्वयं भी चैत्यवासी परम्परा से भिन्न संविग्न या सुविहित परम्परा में दीक्षित हुए थे। यदि उनकी जीवन दृष्टि सुख-सुविधाओं का लाभ उठाने की होती, तो निश्चय ही वे संविग्न परम्परा में दीक्षित न होकर चैत्यवासी परम्परा में ही दीक्षित होते। यद्यपि उनके व्यक्तित्व के सम्बन्ध में हमें विशेष सूचनाएँ उपलब्ध नहीं होती हैं, किन्तु उनकी रचना, उनकी गुरू परम्परा और उनके धर्म परिवार से हम उनके व्यक्तित्व का आकलन कर सकते हैं। उनकी कृति और उनकी गुरू परम्परा से यह निष्कर्ष निकलता है कि उनका व्यक्तित्व भोगवादी न होकर त्याग और वैराग्य प्रधान था। दूसरे जब हम उनके गुरुभ्राताओं और धर्म-परिवार को देखते हैं, तो स्पष्ट रूप से यह भी प्रतीत होता है कि वे सभी अपने युग के विशिष्ट विद्वान् रहें हैं। जहाँ उनके गुरू प्रसिद्ध वैयाकरणविद् थे, वहीं उनके गुरुभ्राता अभयदेवसूरि आगमिक परम्परा के विशिष्ट विद्वान् थे। जिनचन्द्रसूरि की प्रस्तुत कृति से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि वे आत्म साधक होने के साथ-साथ प्राकृत भाषा और साहित्य के गम्भीर अध्येता थे। संवेग और निर्वेद परक उनकी यह कृति स्वयं ही उनके व्यक्तित्व को उजागर कर देती है। लगभग १०,००० प्राकृत गाथाओं में निबद्ध यह कृति उनके जैन आगमों और जैन परम्परा के अनेक ग्रन्थों के व्यापक अध्ययन का ही परिणाम है। संवेगरंगशाला लेखक की गच्छ परम्परा : संवेगरंगशाला के जवेरी कान्तिलाल मणिलाल भाई मुम्बई के द्वारा विक्रम संवत् २०२५ में पत्राकार रूप में प्रकाशित संवेगरंगशाला में संवेगरंगशाला के कर्त्ता जिनचन्द्रसूरि को तपागच्छीय उल्लेखित किया। यह सत्य है कि जिनचन्द्रसूरि नवांगी वृत्तिकार अभयदेवसूरि के गुरुभ्राता हैं और यह भी सत्य है कि अभयदेवसूरि और जिनचन्द्रसूरि-दोनों ही वर्धमानसूरि के प्रशिष्य और जिनेश्वरसूरि के गुरुभ्राता बुद्धिसागरसूरि के शिष्य हैं। वर्धमानसूरि कोटिकगण की वज्रीशाखा के चन्द्रकुल से सम्बन्धित हैं। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि वर्तमान में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक-परम्परा में उपकेशगच्छ को छोड़कर शेष सभी गच्छ कोटिकगण की वज्रीशाखा से ही उत्पन्न हुए हैं। परम्परा के अनुसार तपागच्छ के संस्थापक जगत्चन्द्रसूरि माने जाते हैं। जगत्चन्द्रसूरि बृहद्गच्छीय (बड़गच्छ) आचार्य मणिरत्नसूरि के शिष्यरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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