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________________ 398 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री इस तरह क्षुल्लकमुनि पुनः सकलजन के पूज्य बने और सभी के साथ वहाँ से विहारकर चल दिए। संयम-भार उठाने में थके क्षुल्लक मुनि के समान धर्म में अरति और अधर्म में रति व्यक्ति को संसार में शोक का पात्र बना देती है। रति-मोहनीयकर्म के वशीभूत बना जीव कीचड़ में फंसी हुई वृद्ध गाय की तरह इस लोक के कार्य को भी सिद्ध नहीं कर सकता है, तो परलोक के कार्य को किस तरह सिद्ध करेगा। ___ संवेगरंगशाला में वर्णित इस कथानक में जिनचन्द्रसूरि ने यह बताने का प्रयास किया है कि मुनि को गलत कदम उठाने से पहले गुरुजनों की आज्ञा लेना चाहिए। इससे व्यक्ति का पतन होने से बचाव होता है। इसी सम्बन्ध में क्षुल्लक मुनि की कथा दी गई है, जो हमें अन्य किसी जैन-ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं होती है। सुबन्धु मन्त्री और चाणक्य की कथा किसी के गुप्त सत्य या असत्य दोष को प्रकाशित करना पैशुन्य कहलाता है तथा ऐसा व्यक्ति चुगलखोर कहा जाता है। चुगलखोर कुल्हाड़ी के समान है, जो मनुष्य के प्रेमरूपी काष्ठों (लकड़ियों) को चीरता है और परस्पर वैर करवाता है। इस सम्बन्ध में संवेगरंगशाला में सुबन्धु मन्त्री और चाणक्य की निम्न कथा वर्णित है-790 पाटलीपुत्र नगर में मौर्यवंशी बिन्दुसार नामक राजा राज्य करता था। उसका चाणक्य नामक एक उत्तम मन्त्री था। वह जैनधर्म में रत होकर शासन-प्रभावना करता हुआ दिन व्यतीत करता था। एक दिन नन्द राजा का सुबन्धु मन्त्री पूर्व वैर के कारण चाणक्य के दोषों का निरीक्षण करके राजा से कहने लगा- "हे देव! चाणक्य ने आपकी माता को छुरी से पेट चीरकर मारा था, अतः आपका इससे बड़ा शत्रु और कौन हो सकता है?" ऐसा सुनकर राजा ने धायमाता से पूछा, तो उसने भी यही उत्तर दिया, लेकिन मूल बात थायमाता ने गुप्त रखी। उसी समय चाणक्य को राजसभा में आते देखकर क्रोधातुर बना राजा उससे विमुख हो गया। संवेगरंगशाला, गाथा ६३४१-६३७५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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