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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 395 होते ही उसने एक वृद्धा के सिर पर गट्ठर देखकर उसको मार दिया। अब वह लकड़ियों का गट्ठर लेकर जल्दी से इधर ही आ रहा है। यदि आपको विश्वास नहीं हो, तो आप स्वयं चलकर देख लीजिए।" इस प्रकार रुद्र द्वारा अंगर्षि के सम्बन्ध में मनगढन्त बनाई गई बातों को सुनकर उपाध्याय को उस पर तीव्र क्रोध हुआ और उसके आते ही उन्होंने कहा- "हे पापी! तूने ऐसा अकार्य किया? जा मेरी नजरों से दूर हो जा! ऐसे दुष्ट शिष्य को अध्ययन कराने से क्या लाभ है?" उपाध्याय के मुख से इन शब्दों को सुनकर अंगर्षि पर मानों वज्रपात हुआ। वह अत्यन्त खेद करता हुआ चिन्तन करने लगा- 'हे पापी जीव! पूर्व भव में अवश्य ही तूने घोर पापकर्म किया होगा, जिससे तुझ पर अति दुःसह, असत्य आरोप लगा।' इस तरह चिन्तन-मनन करने से अंगर्षि को जाति-स्मरण-ज्ञान उत्पन्न हुआ। इस ज्ञान से पूर्वभव को जानकर उसने संयम स्वीकार किया और शुभध्यान से शुक्लध्यान में आरूढ़ हुआ। इस तरह उसने सर्वकर्मों को क्षयकर केवलज्ञान को प्राप्त किया। इससे अंगर्षि की सर्वत्र प्रशंसा हुई और रुद्र की सर्वत्र निन्दा होने लगी। सर्वज्ञ परमात्मा ने कहा है कि एक बार भी किया हुआ अभ्याख्यान का पाप (जघन्य से) कम-से-कम दस गुना होता है और तीव्रतर प्रद्वेष करने से करोड़ गुना से भी बहुत ज्यादा पाप लगता है, अतः मनुष्य को सर्वप्रथम इस अभ्याख्यान-दोष का परित्याग कर देना चाहिए। निर्दोष व्यक्ति पर दोषारोपण करना अभ्याख्यान है। ईर्ष्यालु व्यक्ति परसुख-असहिष्णु होता है, क्योंकि ईर्ष्या के वशीभूत होकर वह किसी व्यक्ति के उत्कर्ष या प्रतिष्ठा को सहन नहीं कर पाता है, और उस व्यक्ति में दोष नहीं होने पर भी उस पर मिथ्या दोषारोपण करता है, जिससे उसका अपयश हो। ईर्ष्यालु जीव कुटिल होता है, इसके परिणामस्वरूप वह तीव्र पापों का बन्ध करके अतिशय दुःख को प्राप्त होता है। प्रस्तुत सन्दर्भ में ग्रन्थकार ने रुद्र और अंगर्षि के कथानक दिए हैं। यह कथानक हमें मात्र आवश्यकवृत्ति (पृ. ७०४) में सम्प्राप्त होता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि आचार्यश्री ने प्रस्तुत कथानक का चयन आवश्यकवृत्ति से ही किया होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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