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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 383 करो, अन्यथा मेरे साथ युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।" भरत चक्रवर्ती की इस आज्ञा को सुनकर बाहुबली उसकी अधीनता स्वीकार न कर, उसके साथ युद्ध करने के लिए तैयार हुआ। दोनों ओर से युद्ध प्रारम्भ हुआ, जिसमें अनेक हाथी, घोड़े, सैनिक, आदि मरने लगे। योद्धाओं को मरते देख बाहुबली दया से सिक्त बना अपने भाई से बोला- "हे भरत! वैर तो परस्पर हम दोनों का है, फिर इन निरपराधी जीवों को मारने से क्या लाभ है ? अतः युद्ध हम दोनों को ही करना चाहिए।" भरत ने उसकी बात को स्वीकार कर लिया फिर दोनों ने दृष्टि, मुष्टि, आदि युद्ध करना प्रारम्भ किया। इन प्रत्येक प्रकार के युद्ध में बाहुबली भरत चक्रवर्ती को हराने लगा। 'क्या मैं चक्रवर्ती नहीं हूँ, जो सामान्य मनुष्य की तरह इसकी भुजाबल के द्वारा हार रहा हूँ'- ऐसा चिन्तन करते ही भरत चक्रवर्ती के हाथ में अत्यन्त चमकता हुआ दण्डरत्न आया। दण्डरत्न को देखते ही बाहुबली क्रोधित हुआ और उसने दण्डसहित भरत चक्रवर्ती को मार देने का विचार किया, किन्तु तुरन्त उसे कुशल बुद्धि जाग्रत हुई और वह राज्य के प्रति अपनी विषयासक्ति को धिक्कारने लगा। 'इस राग के कारण जीवात्मा अपने स्वजन, बन्धु को भी तृणतुल्य समझता है और अकार्य करने के लिए तैयार हो जाता है'- ऐसा शुभ चिन्तन करते ही उसे वैराग्य उत्पन्न हुआ और अपने उठे हुए हाथ को पुनः नीचे न करके, उसी हाथ से स्वयमेव पंचमुष्ठि-लोच कर उसने दीक्षा ग्रहण कर ली। तत्पश्चात् बाहुबली ने मन में विचार किया- 'भगवान् के पास जाऊँगा, तो मुझे मेरे छोटे भाईयों को वन्दन करना पडेगा', इस अभिमान के कारण बाहुबली वहीं कार्योत्सर्ग ध्यान में खड़ा हो गया तथा 'केवलज्ञान के बाद ही परमात्मा के पास जाऊँगा'- ऐसी प्रतिज्ञा करके निराहार खड़ा रहा। इस तरह एक वर्ष तक की कठिन साधना से उसका शरीर अत्यन्त कृश हो गया। वर्ष के अन्त में ऋषभदेव भगवान ने ब्राह्मी और सुन्दरी-इन दो साध्वियों को बाहुबली के पास भेजा। वहाँ जाकर उन्होंने अपने भाई से कहा- “अरे भैया! ऋषभदेव भगवान ने कहा है कि हाथी के ऊपर चढ़ने से केवलज्ञान प्रकट नहीं होता, अतः हाथी का त्याग करो।" अपनी बहनों के वचन सुनकर बाहुबली सम्यक् विचार करने लगा कि मेरी बहनें मृषा वचन नहीं कह सकती, पर मैं किस हाथी पर चढ़ा हुआ हूँ?" गहराई से चिन्तन करने से उसे विचार आया- 'हाँ! मैं मानरूपी हाथी पर चढ़ा हुआ हूँ। उसी का मुझे त्याग करना है।' सत्य बात ज्ञात होते ही उसे शुक्लध्यान प्रकट हुआ और वह मान का त्यागकर प्रभु के चरणों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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