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________________ 4 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री सुरुचिपूर्वक किया है। यह सत्य है कि श्रीमाल नगरी, जो वर्तमान में भिन्नमाल के नाम से जानी जाती है, एक समय उत्तरी गुजरात की प्रमुख नगरी रही है। इन सबसे इतना सुनिश्चित है कि लेखक का विशेष सम्बन्ध उत्तरी गुजरात एवं कच्छ-देश से रहा है। ग्रन्थ की संशोधित प्रतिलिपि भी अहमदाबाद के निकट ही बटवा में हुई है, अतः यह मान लेने में कोई बाधा नहीं है कि ग्रन्थकार मुख्यतः उत्तर गुजरात से सम्बन्धित है। जहाँ तक ग्रन्थकार के गृहस्थ जीवन से सम्बन्धित वंश, कुल, आदि की जानकारी का प्रश्न है, इस सम्बन्ध में प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रशस्ति से और अन्य किन्हीं स्रोत से कुछ यह पता नहीं चलता है कि वे किस जाति और वंश के थे, लेकिन यह सुनिश्चित सत्य है कि आचार्य जिनचन्द्रसूरि जैन-धर्म की श्वेताम्बर-शाखा में दीक्षित थे। यह सभी को निर्विवाद रूप से मान्य है कि वर्धमानसूरि के दो शिष्य जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि हुए। जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि-दोनों सहोदर थे। बुद्धिसागरसूरि के काल के सम्बन्ध में बहुत स्पष्ट रूप से तो ज्ञात नहीं होता, केवल इतना ही ज्ञात होता है कि उन्होंने विक्रम संवत् १०८० में पंचलिंगी नामक व्याकरण-ग्रन्थ की रचना की थी। इन्हीं बुद्धिसागरसूरि के शिष्य नवांगी टीकाकार अभयदेव के गुरुभ्राता संवेगरंगशाला के कर्ता जिनचन्द्रसूरि थे। जिनचन्द्रसूरि का धर्म-परिवार : चाहे जिनचन्द्रसूरि के गृहस्थ परिवार के सम्बन्ध में हमें कोई भी जानकारी उपलब्ध नहीं होती हो, किन्तु उनके धर्म परिवार के सम्बन्ध में संवेगरंगशाला की प्रशस्ति एवं अन्य ग्रन्थों से बिखरी हुई कुछ जानकारियां उपलब्ध हो जाती हैं। खरतरगच्छ के आदिकालीन इतिहास में महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर यह लिखते हैं कि जिनेश्वरसूरि ने जिनचन्द्र, अभयदेव, धनेश्वर, हरिभद्र, प्रसन्नचन्द्र, धर्मदेव, सहदेव, सुमति, आदि अनेक व्यक्तियों को दीक्षा देकर उन्हें अपना शिष्य बनाया, 2 किन्तु संवेगरंगशाला की अन्तिम प्रशस्ति के अनुसार जिनचन्द्रसूरि जिनेश्वरसूरि के लघुभ्राता बुद्धिसागरसूरि के शिष्य थे। सम्भावना यह लगती है कि बुद्धिसागरसूरि ने अपने भ्राता जिनेश्वरसूरि से ही जिनचन्द्रसूरि और अभयदेवसूरि को दीक्षा-मंत्र प्रदान करवाकर अपना शिष्य बनाया हो। अतः, शिष्य तो वे बुद्धिसागरसूरि के ही थे और संवेगरंगशाला में इसी रूप में उन्होंने अपना परिचय भी दिया है। यह भी सत्य है कि नवांगी वृत्तिकार अभयदेवसूरि उनके गुरुभ्राता थे, क्योंकि उन्होंने भी अपने को बुद्धिसागरसूरि का शिष्य बताया है। ऐसा कहा जाता - खरतरगच्छ के आदिकालीन इतिहास, पृ.-१०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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