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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 313 विचरने लगे। एक दिन कीर्तिधर मुनि विचरते हुए साकेतनगर में पधारे। एकदा रानी ने मुनि को भिक्षा के लिए नगर में भ्रमण करते हुए देखा। इससे वह विचार करने लगी- 'कहीं यह मुनि मेरे पुत्र को भी दीक्षा न दे दे !' ऐसा विचार कर रानी ने अपने सेवकों से कहकर मुनि को नगर से बाहर निकलवा दिया। उसी समय धायमाता को रोते हुए देखकर सुकौशल ने उससे पूछा - "हे माता! आप इस प्रकार क्यों रो रही हो?" धायमाता ने राजा को सर्व सत्य वृत्तान्त बता दिया । धायमाता की बात सुनकर राजा सुकौशल वहाँ से निकलकर शीघ्र अपने पिता मुनि को वन्दन करने के लिए चल दिया। जंगल में वह अपने पिता मुनि को खोजने लगा। अचानक एक वृक्ष के नीचे ध्यान में स्थित एक मुनि को देखकर, उसने तुरन्त अपने पिता को पहचान लिया और भावपूर्वक उनके चरणों में गिरकर उन्हें वन्दन किया और बोला- “हे भगवन्! क्या अपने प्रिय पुत्र को इस तरह अग्नि से जलते हुए घर में छोड़कर पिता को दीक्षा लेना योग्य है। हे भगवन्! अभी भी आप मुझे दीक्षारूपी हाथ का आलम्बन देकर बचा लीजिए | " मुनि ने 'पुत्र को तीव्र वैराग्यभाव उत्पन्न हुए है'- ऐसा जानकर उसे दीक्षा प्रदान की। रानी को अपने पुत्र की दीक्षा का समाचार मिला, जिसे सुनकर उसे अत्यन्त दुःख और क्रोध उत्पन्न हुआ और क्रोधावेश में वह महल से गिरकर मर गई। रानी वहाँ से मरकर मोंग्गिल नामक पर्वत पर शेरनी के रूप में उत्पन्न हुई। इधर मुनि भी विचरते हुए उसी पर्वत पर पहुँचे। वहाँ मुनि ने चार महीने ध्यान-साधना की। तत्पश्चात् शरदकाल में जब विहार करने लगे, तब मुनि को देखकर पूर्व वैर से क्रोधित बनी शेरनी ने उन पर छलांग लगाई। मुनि ने 'शेरनी का तीव्र उपसर्ग उपस्थित हुआ है'- ऐसा जानकर सागार - प्रत्याख्यान किया तथा कायोत्सर्ग में खड़े हो गए। शेरनी ने मुनि को पृथ्वी पर गिराकर उनका भक्षण करना प्रारम्भ किया। उस समय मुनि उस पीड़ा को समता से सहन करते हुए चिन्तन करने लगे 'इस संसार में दुःख तो पग-पग पर हैं, परन्तु जैन-धर्म मिलना दुर्लभ है। यह धर्म मुझे पुण्योदय से प्राप्त हुआ है, इसलिए मेरा जन्म भी सफल है; लेकिन बस एक ही चिन्ता है कि मैं इस शेरनी के कर्मबन्धन में निमित्त बना हूँ। मुझे मेरी आत्मा का शोक नहीं है, बल्कि दुःख- समुद्र में पड़ी हुई इस शेरनी का शोक है, इसलिए जिन महापुरुषों ने मोक्ष को प्राप्त कर लिया उनको मैं भाव से नमन करता हूँ। ऐसा चिन्तन-मनन करते हुए सर्व कर्ममल को धोकर धर्म - ध्यान से शुक्ल - ध्यान में उत्तरोत्तर बढ़ते हुए अन्तकृत - केवली होकर कौशल राजर्षि ने सिद्धगति को प्राप्त किया। Jain Education International ... For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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