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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 301 नैतिक-प्रगति नहीं कर सकता है। आध्यात्मिक-विकास की साधना के लिए इन कषायों को क्यों छोड़ना चाहिए? इस तर्क के उत्तर में आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं कि मान-विनय, श्रुत, शील-सदाचार एवं त्रिवर्ग का घातक है, वह विवकेरूपी नेत्रों को नष्ट करके मनुष्य को अन्धा बना देता है। क्रोध जब उत्पन्न होता है, तो आग की तरह प्रथम उसी को जलाता है, जिसमें वह उत्पन्न होता है। माया, अविद्या और असत्य की जनक है और शीलरूपी वृक्ष को नष्ट करने में कुल्हाड़े के समान है तथा अधोगति का कारण है। लोभ समस्त दोषों की उत्पत्ति का कारण है, समस्त सद्गुणों को निगल जानेवाला राक्षस है, सारे दुःखों का मूल कारण है और धर्मकार्य में पुरुषार्थ का बाधक है।७२६ इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि चारों कषायों में भी लोभ को सर्व सद्गुणों के विनाश का कारण कहा गया है। लोभ एक ऐसी मनोवृत्ति है, जिसके वशीभूत होकर मनुष्य पापों के दलदल में पांव रखने के लिए तैयार हो जाता है। लोभ-कषाय के सन्दर्भ में मम्मणसेठ का उदाहरण सर्वप्रसिद्ध है। संवेगरंगशाला में कषाय पर विजय प्राप्त करनेवाले धन्य पुरुषों का उल्लेख अनेक उपमाओं सहित किया गया है, जैसे- धन्य पुरुषों में भी वह पुरुष धन्य है, जो कषायरूप गेहूं और जौ के कणों को पूर्णतया चूर्ण करने के लिए चक्की में पिसते हैं, इसलिए हे देवानुप्रिय! क्रोधादि कषायों का निरोध करके तू भी उसी तरह विजय प्राप्त कर कि जिससे तेरी आराधना सम्यक् हो सके।730 लेश्या : चित्त में उठनेवाली विचार-तरंगों को लेश्या कहा गया है। जैसे- हवा का झोंका आने पर सागर में लहरों पर लहरें उठनी प्रारम्भ हो जाती हैं। वैसे ही आत्मा में भाव-कर्म के उदय होने पर विषय-विकार, विचारों के बवण्डर उठने लगते हैं, यही लेश्याएँ हैं। जिनके द्वारा आत्मा कर्म-लिप्त होती है, उन्हें स्थानांग-वृत्ति में लेश्या कहा गया है।31 प्रज्ञापना के अनुसार लेश्या कषाय का परिणाम है।732 729 योगशास्त्र, ४/१०, १८. 150 सवगरंगशाला, गाथा ७०३४-७०३५. 731 स्थानांगवृत्ति, पत्र २६. प्रज्ञापना-पद, १७/ मलयगिरि टीका। 732 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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