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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 289 मर्यादा-विरुद्ध कोई कार्य किया हो, जिनमन्दिर, जिनप्रतिमा, जिनागम एवं श्रीसंघ, आदि का मन-वचन-काया से अवर्णवाद, अर्थात् निन्दा की हो, अथवा उनका नाशादि किया हो, सूक्ष्म एवं बादर अथवा त्रस एवं स्थावर जीवों की विराधनारूप आरम्भ-समारम्भ किया हो, श्रावक-जीवन में अणुव्रत, गुणव्रत, आदि में जो कोई अतिचार लगा हो तथा सम्यक्त्व प्राप्त करने के पश्चात् रागादिवश कोई भी जिनाज्ञा-विरुद्ध आचरण किया हो, तो उन सर्वपापों की भी तू सम्यक् प्रकार से गर्दा कर, निन्दा कर।689 __ गृहस्थ-जीवन में पन्द्रह कर्मादानों (निषिद्ध व्यवसाय) का सेवन किया हो, कराया हो या अनुमोदन किया हो, मुनि-जीवन में दसविध सामाचारी, पंचाचार, नियमों, व्रतों का भंग किया हो, इस जन्म में अथवा अन्य जन्म में मिथ्यात्ववश धर्म को अधर्म, तत्त्व को अतत्त्व, सुदेव को कुदेव माना हो, गृहस्थ एवं मुनि के मूलगुणों एवं उत्तरगणों में छोटे-बड़े अतिचारों का सेवन किया हो, आहार, भय, मैथुन, आदि संज्ञाओं के वशीभूत कोई पाप-आचरण किया हो, नारक-जीवन में नरक के अन्य जीवों को उत्तर वैक्रियरूप शरीर से कठोर दुःसह वेदना दी हो, तिर्यंच जीवन में एकेन्द्रिय-योनि प्राप्त कर पृथ्वीकाय, आदि एकेन्द्रिय जीवों की अन्योन्य मिलनरूप शस्त्र से किसी प्रकार की विराधना की हो, इसी तरह द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीवों की विराधना की हो, तो उन सबकी अवश्यमेव त्रिविध-त्रिविध रूप से गर्दा कर।690 मनुष्य-जीवन में किसी समय राजा या मंत्री आदि अवस्था प्राप्त कर अन्य मनुष्य को फांसी पर लटकाया हो, कटुवचन बोला हो, अन्याय किया हो, ताड़न, मारण तथा पीड़ा दी हो, परस्त्री का सेवन किया हो, गर्भ को गलाया, टुकड़े-टुकड़े करके निकाला हो, नाश किया हो, पति का घात किया हो, बालक का हरण किया हो, भूत, आदि निम्न जाति के देवों को मन्त्र-तन्त्रादि की शक्ति के प्रयोग से आज्ञा देकर या अपना इष्ट बनाकर कष्ट दिया हो, अथवा किसी व्यक्ति में उनका प्रवेश करवाया या उनको निकाला हो, इत्यादि अन्य जो भी घोर पाप किए हों, हे क्षपक मुनि! पुनः संवेग प्राप्त करके वांछित फल की प्राप्ति, अर्थात् निर्विघ्न आराधना के लिए उनकी त्रिविध-त्रिविध रूप से गर्दा कर, निन्दा कर।691 भवनपति, वाणव्यन्तर और वैमानिक आदि देव का जीवन प्राप्त कर तूने यदि नारक, तिथंच, मनुष्य अथवा देवों को दुःखी किया हो, पूर्व वैर का बदला 2 संवेगरंगशाला, गाथा ८३२४-८३४३. 690 संवैगरंगशाला, गाथा ८३४४-८४३२. 691 संवैगरंगशाला, गाथा ८४३३-८४५८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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