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________________ 276/ साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री देह-सम्बन्धी रागात्मक विकल्पों के शमन के लिए देह की अशुचिता का बार-बार चिन्तन करना चाहिए। पण्डित दौलतरामजी कहते हैं- “कफ और चर्बी, आदि से मैली यह देह माँस, खून एवं पीपरूपी मल की थैली है। इसके आँख, कान, नाक, मुँह, आदि नौ द्वारों से निरन्तर घृणास्पद मैले पदार्थ ही बहते रहते हैं। हे आत्मन्! तू ऐसी घृणास्पद इस देह से स्नेह क्यों करता है?"639 “जीवों का यह शरीर अस्थियों से बना और चर्मों के आवरण से ढंका है। कई तरह की विकृतियों एवं दुर्गन्धों से युक्त यह सभी रोगरूपी सपों का घर है, इसके प्रति राग रखना व्यर्थ है।"640 इसी बात को पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा ने इस प्रकार व्यक्त किया है- “अपनी आत्मा अत्यन्त निर्मल है और यह देह अपवित्रता का घर है। हे भव्य जीवों! इस प्रकार इस देह से स्नेह छोड़ो और निजभाव का ध्यान करो।"641 इन सबका तात्पर्य यही है कि यह शरीर स्वयं तो अशुचिमय है ही, इसके संसर्ग में आनेवाले प्रत्येक पदार्थ भी इसके संयोग से अपवित्र हो जाते हैं। प्रातः साफ, स्वच्छ वस्त्र पहनते हैं, तो शाम तक मैले हो ही जाते हैं, पसीने की गन्ध आने लगती है, शुद्ध सात्विक-भोजन इसके संसर्ग में आते ही उच्छिष्ट (अपवित्र) हो जाता है। निर्मल जल से स्नान करने पर शरीर के संयोग से वह जल भी मैला हो जाता है। इस बात की चर्चा करते हुए स्नानाष्टक में कहा गया __“जिस शरीर की समीपता के कारण उत्तम माला, आदि पदार्थ छूने के योग्य नहीं रहते हैं, जो मल-मूत्रादि से भरा हुआ है, रस-रुधिरादि सप्त धातुओं से रचा गया है, भयानक दुर्गन्ध से युक्त है तथा जो निर्मल आत्मा को भी मलिन करता है, समस्त अपवित्रताओं के संग्रहस्थल के समान यह मनुष्यों का शरीर जल के स्नान से कैसे शुद्ध हो सकता है?"642_ उक्त सम्पूर्ण कथनों का सार यही है कि स्वभाव से ही अशुचिमय देह के ममत्व में इस दुर्लभ नरभव को समाप्त कर देना उचित नहीं है। इस देह से अत्यन्त भिन्न स्वभाववाले परम पवित्र आत्मा की साधना-आराधना करना ही मानव जीवन का एकमात्र लक्ष्य है। 637 भगवतीआराधना, १८०७. 638 ज्ञानार्णव (अशुचिभावना) 69 छह ढाला, पंचम ढाल, छन्द ८. 640 ज्ञानार्णव (अशुचिभावना) 641 बारह भावना. 642 पानन्दि पंचविंशतिः अध्याय २५, छन्द १. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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