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________________ बी.ए. से लेकर एम.ए. तक की शिक्षाओं में जिनका सहयोग मिला, उन गुरु भगिनियों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करना मेरा सहज धर्म है। सहज स्नेहिल पूज्य प्रीतिसुधाश्रीजी म.सा., व्युत्पन्न प्रतिभा के धनी पूज्य प्रीतियशाश्रीजी म.सा., सरलमना पूज्य प्रियस्मिताश्रीजी म.सा., मधुरभाषिणी पूज्य प्रियलताश्रीजी म.सा., व्यवहारकुशल पूज्य प्रियवन्दनाश्रीजी म.सा., जिनशासन समर्पित पूज्य प्रियकल्पनाश्रीजी म.सा., चातुर्य एवं माधुर्य गुणयुक्त पूज्य प्रियश्रद्धांजनाश्रीजी म.सा., प्रतिभासम्पन्न पूज्य प्रियस्नेहांजनाश्रीजी म. सा. और आर्द्रहृदया पूज्य प्रियसौम्यांजनाश्रीजी म.सा. के पावन चरणों में आत्मभावेन मेरा नमन। आप सभी की मैं हृदय से कृतज्ञ हूँ। समय-समय पर आप सभी का सहयोग मिलता रहा। स्व. प्रियभव्यांजनाश्रीजी, प्रियस्वर्णाजनाश्रीजी, प्रियप्रेक्षांजनाश्रीजी, प्रियश्रेयांजनाश्रीजी, प्रियभंताजनाश्रीजी, प्रियदर्शाजनाश्रीजी, प्रियज्ञानांजनाश्रीजी एवं प्रियदक्षांजनाश्रीजी का भी प्रशंसनीय सहयोग रहा है। उन सभी के प्रति हृदय से आभार अभिव्यक्त करती हूँ। प्रारंभिक शिक्षा से आज तक की मेरी शिक्षायात्रा से जुड़ी रही प्रेरणाप्रदीप, मधुरवक्ता एवं प्रसन्नवदन पूज्य प्रियरंजनाश्रीजी म.सा. के प्रति मैं इन क्षणों में अपनी हार्दिक कृतज्ञता अभिव्यक्त कर उनकी आत्मीयता का अवमूल्यन नहीं करूंगी। यद्यपि भावाभिव्यक्ति की एक सीमा होती है और वह मात्र चार पंक्तियों में सिमट कर रह जाती है, परन्तु उनके प्रति आस्था असीम है, क्योंकि अगर वे मुझे अध्ययन से जुड़े रहने की निरन्तर प्रेरणा नहीं देती तो सम्भवतः यह यात्रा अधूरी ही रह सकती थी। उन्होंने मुझे गुरु-बहन के रूप में सम्मान दिया ही, साथ ही गुरुवर्या बनकर स्नेहासिक्त प्रेरणा भी दी। अध्ययनरत प्रियशभांजनाश्रीजी का आत्मीय सहयोग तो इस ग्रन्थ के साथ जुड़ा ही रहेगा, जिन्होंने सुदीर्घ अवधि तक मेरे अध्ययन-कार्य में पूर्ण योगदान दिया है। इस शोधकार्य को प्रारम्भ से लेकर अन्तिम पड़ाव तक कुशलतापूर्वक पहुँचाने वाले मूर्धन्यमनीषी, अन्तर्राष्ट्रीय विद्वान् माननीय डॉ. सागरमलजी जैन के प्रति मैं हृदय से कृतज्ञ हूँ। मैं अपने-आप को भाग्यशाली मानती हूँ कि उनका सफल निर्देशन एवं सहयोग निरन्तर प्राप्त होता रहा। उदार व्यक्तित्व के धनी डॉ. सागरमलजी जैन ने इस ग्रन्थ को सम्पूर्ण करने हेतु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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