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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 235 वर्ष तक विशिष्ट तप करे, फिर दो वर्ष तक पारणे में आयंबिलपूर्वक एकान्तर उपवास का तप करे। इस तरह दस वर्ष पूर्ण हुए। अब ग्यारहवें वर्ष में पहले छ: मास में क्लिष्ट तप न करके परिमित-आहार लेते हुए आयंबिल करे और अन्तिम छ: मास में पुनः क्लिष्ट तप करके पारणे में शरीर को टिकाने के लिए आयंबिल में आवश्यकतानुसार भोजन ग्रहण करे।32 अन्तिम बारहवें वर्ष में उत्कृष्ट आयंबिल तप करे। अन्त के शेष चार मास में साधक को लम्बे समय तक मुख में तेल भरकर कुल्ला करने को कहा गया है। ऐसा करने से साधक का मुख वायु से बन्द नहीं होता है तथा मृत्युकाल में भी वह नमस्कार-महामन्त्र का स्मरण बिना कष्ट के कर सकता है। अन्त में यह कहा गया है कि अन्तिम समय में इस संलेखना को छः मास अथवा चार मास में पूर्ण किया जाए, तो वह जघन्य संलेखना कहलाती है।533 संवेगरंगशाला में समाधिमरण के उत्कृष्ट और जघन्य-दो भेद किए गए हैं। संवेगरंगशाला और उत्तराध्ययनसूत्र534 - दोनों ही ग्रन्थों में उत्कृष्ट संलेखना बारह वर्ष की तथा जघन्य संलेखना छः मास की बताई गई है, किन्तु उत्तराध्ययनसूत्र में मध्यम संलेखना को एक वर्ष की कहा गया है। पुनः, दोनों ही ग्रन्थों में बारह वर्ष से उत्कृष्ट संलेखना की विधि बताई गई है। उस विधि में यह बताया गया है कि किन-किन वर्षों में किस-किस प्रकार का तप करना चाहिए। इस चर्चा में बारह वर्ष की जो संलेखना-विधि है, उसमें चार-चार वर्ष के तीन विभाग किए गए हैं। पुनः, तीसरे विभाग में दो वर्ष, एक वर्ष, छः माह, पाँच माह, और एक माह की विशिष्ट तप-विधि बताई गई है। तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हम यह पाते हैं कि जहाँ उत्तराध्ययनसूत्र में प्रथम चार वर्ष में विगय त्याग का उल्लेख किया है, वहीं जिनचन्द्रसूरि ने संवेगरंगशाला में प्रथम चार वर्ष तक विविध प्रकार के तप करने का उल्लेख किया है तथा उनके पारणे में विगयों के सेवन की अनुमति भी दी। दूसरे चार वर्षों में उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार विविध तप करने का उल्लेख है, जबकि संवेगरंगशाला में विविध तप करने का उल्लेख होते हुए भी उनके पारणे में विगय-त्याग का निर्देश किया गया है। इसके पश्चात् नौवें और दसवें वर्ष में दोनों ही ग्रन्थों में एकान्तर-तप और पारणे में आयंबिल करने का निर्देश है। ग्यारहवें वर्ष के प्रथम छः मास में आयंबिल करे और विकृष्ट-तप न करे- ऐसा निर्देश है। 512 संवैगरंगशाला, गाथा ४००६-४०११. 555 संवेगरंगशाला, गाथा ४०१२-४०१६. 534 उत्तराध्ययनसूत्र, अ. ३६/गा. २५१-२५५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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