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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 225 ३. अदत्तादान : संवेगरंगशाला के अनुसार जैसे कीचड़ जल को मलिन करता है, मैल दर्पण को मलिन करता है और धुंआ दीवार के चित्रों को मलिन करता है, वैसे ही परधन लेने का भाव भी चित्तरूपी रत्न को मलिन करता है। इसमें परधन के प्रति आसक्ति रखनेवाले जीव की स्थिति का वर्णन करते हुए कहा गया है - जिस प्रकार मृग को संगीत में आसक्ति, पतंग को दीपक में आसक्ति, मत्स्य को लोहे के कांटे पर स्थित मांस पर आसक्ति, भ्रमर को कमल पर आसक्ति एवं हाथी की हथिनी पर आसक्ति होने से वे अपने ही प्राणों का नाश करते हैं, उसी प्रकार जो परधन ( अदत्त ) पर आसक्ति करता है, वह मनुष्य उसी भव (जन्म) में हाथ, पैर, कान, आदि अंगों में छेदन - भेदन को प्राप्त होता है और इस तरह वह तीव्र वेदना से दुःखी होता है। 505 साथ ही इसमें कहा गया है- अन्य अपराध करनेवाले अपराधी को तो एक बार स्वजन अपने घर में रहने को स्थान दे देते हैं, किन्तु परधन की चोरी करने से स्वयं की माता भी घर में रहने का स्थान नहीं देती है। यदि उसे किसी तरह किसी के घर में आश्रय मिलता भी है, तो वह उसे बिना कारण ही अपयश, दुःख एवं महासंकट में फंसा देता है। संसार में प्राणी अत्यन्त कठिनाई से धन का संग्रह करता है एवं उसकी प्राणों से भी अधिक रक्षा करता है। ऐसे प्राणों से भी प्रिय उस धन की चोरी का जो पाप करता है, तो उससे अधिक बड़ा पाप और क्या होगा? उसके धन की चोरी करनेवाला पापी जीव दूसरों को जीते जी मार डालता है। इस तरह अदत्तादान (चोरी) करनेवाला जीव प्राणी का वध करता है, झूठ भी बोलता है, इससे वह अनेक प्रकार के संकटों एवं मृत्यु को प्राप्त करता है। इस प्रकार चोरी के पाप से जीव जन्मान्तर में दरिद्रता, भीरुता एवं माता, पिता, पुत्र, स्त्री, आदि के वियोग, इत्यादि दोषों को प्राप्त करता है। जो परधन आसक्ति का त्याग करता है, उसकी दुर्गति टलती है और वह देवसुख को प्राप्त करता है, फिर वहाँ से उत्तम कुल में जन्म लेकर तथा शुद्ध धर्म को प्राप्त कर आत्महित में प्रवृत्ति करता है। 506 ४. मैथुन :- संवेगरंगशाला में ग्रन्थकार चतुर्थ पापस्थानक का विस्तार से विवेचन करते हुए कहता है- कामी पुरुष स्त्री के सौदर्य का विचार करते हुए स्त्री को ही सर्वस्व मानता हुआ कहता है कि जिसका चिन्तन - स्मरण भी शत 505 506 संवेगरंगशाला, गाथा ५७५३-५७५७. संवेगरंगशाला, गाथा ५७६०- ५७८१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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