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________________ त्रिगुप्ति, दस यतिधर्म, बाईस परीषह, बारह प्रकार के तप आदि का निरूपण किया गया है। तीसरे अध्याय में समाधिमरण की पूर्व पीठिका एवं देह-विसर्जन-विधि की चर्चा की गई है। इसमें समाधिमरण कौन ग्रहण कर सकता है; उसकी क्या योग्यता या अर्हता होती है? इसका उल्लेख किया गया है । समाधिमरण कब और क्यों करना चाहिए, इस चर्चा में कहा गया है कि जब आराधक को अपना अन्तिम समय नजदीक दिखाई दे, तब समाधिमरण अंगीकार किया जाता है। समाधिमरण अंगीकार करने से पहले संलेखना की जाती है। संलेखना में सब प्रकार के कषायों को क्षीण करना होता है। सम्यक् रूप से काय एवं कषाय की लेखना संलेखना है अर्थात् सम्यक् प्रकार से काय और कषायों को कृश करना संलेखना या सल्लेखना है। इस प्रकार जब बाहर से काय और भीतर से कषाय को कृश कर दिया जाता है, तब साधक समाधिमरण को अंगीकार करता है । समाधिमरण संसार से सदा के लिए छुटकारा पाने का साधन है। व्यक्ति भावपूर्वक दीर्घ विधि से मरण को स्वीकार कर सकता है। इसी प्रसंग में ग्रन्थकार ने मरण के विविध रूपों की विस्तार से चर्चा की है । मृत्यु की सन्निकटता जानने के विविध उपायों के साथ, शय्या, संस्तारक की खोज किस प्रकार करनी चाहिए और मुनि की देह को किस प्रकार विसर्जित करना चाहिए, इसका भी विस्तृत विवेचन किया गया है। चौथे अध्याय में समाधिमरण की भूमिका तैयार की गई है। संलेखना करके साधक भूमिका का निर्माण कर लेता है; आहार का, अठारह प्रकार के पापों का एवं शरीर का एवं शरीर के प्रति ममता का परित्याग कर देता है। जिस शरीर का बड़े यत्न से पालन-पोषण किया था, जिसे सर्दी-गर्मी और रोगों से बचाया था, उसके प्रति लेशमात्र भी ममत्व धारण नहीं करना और शान्ति और समभाव से आत्म-परमात्म के स्वरूप का चिन्तन करते हुए उसे त्याग देना अर्थात् आसक्ति से मुक्ति के उपायस्वरूप बारह भावनाओं का चिनतन करना फिर दुष्कृत गर्हा, सुकृत अनुमोदना, क्षमापना आदि की चर्चा इस अध्याय में की गई है। इसके साथ ही अरिहन्त, सिद्ध, साधु और धर्मइन चारों की शरण स्वीकार करना, इन्द्रिय-विषयों का दमन करना, कषायजय, लेश्या एवं ध्यान, आदि पर भी प्रकाश डालने का प्रयत्न किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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