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________________ फिर वियोग का अति भंयकर दुःख देते हैं । हे चित्त ! ऐसे विषयों के संग में रमण करने से क्या प्रयोजन ? यदि वैराग्य को छोड़कर विषयों में रमण करना ही चाहता है, तो तेरी वही दशा होगी, जो कालरूपी सर्प के बिल के समीप चन्दन के काष्ठ से अनेक द्वारोंवाला सुन्दर महल बनाकर, मालती के पुष्पों की शय्या में, यहाँ सुख है - ऐसा समझकर, निद्रा लेनेवाले की होती है, अर्थात् वह शीघ्र मृत्यु का ग्रास बन जाता है। 448 इसके पश्चात् जिनचन्द्रसूरि ने आत्मा में रहे सम्यग्ज्ञान को प्राप्त करने के लिए प्रेरित करते हुए कहा है- हे मन! यदि तू निष्पाप आत्मा के ऐश्वर्य को प्राप्त करना चाहता है, तो सम्यग्ज्ञानरूपी रत्न को धारण कर। जब तक तेरे भीतर अज्ञानरूपी घोर अंधकार रहेगा, तब तक तेरा जीवन अंधकारमय ही बना रहेगा, इसलिए अज्ञानरूपी अंधकार को दूर करने के लिए ज्ञानरूपी सूर्य को अपने अन्तर में प्रकट कर। मोहरूपी अंधकार से व्याप्त इस संसाररूपी गुफा में से निकलने के लिए ज्ञानरूपी सूर्य के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है। 449 पुनः, संवेगरंगशाला में मन को अनुशासित करने के विभिन्न उपायों का उल्लेख करते हुए कहा गया है- हे मन! हड्डी, मांस, चर्बी, नस, आदि से बने इस शरीर पर तू मोह न कर। इस असार संसार में स्त्री ही सार है ऐसी मिथ्या भ्रमरूपी मदिरा से मदोन्मत्त मत बन । बाहर से देखने में सुन्दर प्रतीत होने पर भी अति दुर्गन्धमय मल, मूत्र, मांस, रुधिर और हड्डी के पिंजररूप स्त्री के शरीर में तू राग मत कर। हे चित्त ! तू अर्थ की प्राप्ति होने पर अभिमान करता है, नहीं मिलने पर दुःखी रहता है और मिलने के बाद नष्ट हो जाने पर शोक करता है, इसलिए धन की आशा को छोड़कर तू सन्तोषरूपी धन को प्राप्त कर। पूर्व में तूने जैसा किया है, वर्तमान में तुझे वैसा ही मिला है, इसलिए इसमें हर्ष अथवा खेद मत कर। कर्मों के परिणामों को समतापूर्वक सहन कर 1 450 जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 197 ग्रन्थकार कहते हैं कि वही वन्दनीय है, जिसने मन को अपने वश में कर लिया। वे कहते हैं हे चित्त! यदि तू लक्ष्मी का अभिमान नहीं करता है, रागादि अन्तरंग शत्रुओं के वशीभूत नहीं होता है, स्त्रियों के प्रति आकर्षित नहीं होता है, विषयों में लोलुपता नहीं रखता है, सन्तोष को नहीं छोड़ता है, इच्छाओं 448 449 450 - संवेगरंगशाला, गाथा १८४३ - १८५२. संवेगरंगशाला, गाथा १८५३ - १८५५. संवेगरंगशाला, गाथा १८५७-१८६७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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