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________________ 194 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री गुप्ति से गुप्त एवं पाँच समिति से समित हुई आत्मा, ममत्व एवं अंहकार से रहित, समदृष्टि एवं परमार्थ से तत्त्व को जाननेवाली आत्मा, स्व-पर, शत्रु-मित्र में समचित्त (समता ) रखनेवाली आत्मा, दूसरों के द्वारा हित या अहित करने पर भी हर्ष अथवा क्रोध को नहीं धारण करनेवाली आत्मा और सर्वद्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव में राग-द्वेष को त्यागने में तत्पर एवं सर्व जीवों के प्रति मित्रता रखनेवाली आत्मा ही भाव - संस्तारक है । सम्यक्ज्ञान, दर्शन एवं चारित्ररूप गुण ऐसी आत्मा में ही सुरक्षित रहते हैं, अतः आत्मा ही भाव संस्तारक है । 437 इसमें संथारे के दो रूप बताए हैं- शुद्ध-संथारा और अशुद्ध- संथारा। जो साधक आश्रव भावों को रोकता नहीं है, उपशमभाव में रहता नहीं है, आलोचना आदि नहीं लेता है, फिर भी अनशन स्वीकार करता है, तो उसका संस्तर अशुद्ध कहलाता है; किन्तु जो गुरु के पास आलोचना आदि ग्रहण करता है, सर्व विकथाओं से मुक्त रहता है, सात भय एवं आठ मद से रहित होता है, नौ ब्रह्मचर्य की गुप्ति एवं दस यतिधर्म का सम्यक् पालन करता है, उसका संथारा शुद्ध होता है। जो बाह्य एवं आभ्यान्तर - गुणों से रहित होकर तथा दोषों से युक्त होकर मात्र संस्तर में रहता है, वह मोक्ष को प्राप्त नहीं करता है। इसके विपरीत जो बाह्य - आभ्यान्तर गुणसहित एवं दोषों से रहित होता है तथा संस्तर में भी नहीं रहता है, तो भी वह मनोवांछित फल को प्राप्त करता है । 438 इस तरह संवेगरंगशाला में कहा गया है तीन गुप्ति से गुप्त जो श्रेष्ठ आत्मा, संलेखना करने के लिए सम्यक्द्मवरूपी पृथ्वी एवं शुद्ध लेश्यारूपी शिला आदि संस्तर पर आरोहण करती है, वही आत्मा ही संस्तारक होती है। विशुद्धमरण (पण्डितमरण) प्राप्त करने वालों के लिए तृणमय संस्तारक अथवा अचित भूमि आराधना के कारण नहीं हैं, क्योंकि आत्मा ही स्वयं अपना संस्तर का आधार बनती है। आत्मसजग साधक का अग्नि, जल, हरी वनस्पति एवं त्रस जीव के ऊपर भी संस्तारक होता है। संवेगरंगशाला में अग्नि, जल एवं त्रस जीव आदि के संस्तारक के प्रसंग पर अनुक्रम से गजसुकुमार, अर्णिकापुत्र और चिलातीपुत्र का दृष्टान्त उपलब्ध होता है । 439 440 2 संवेगरंगशाला की तरह आचारांगसूत्र आराधनापताका एवं भगवती - आराधना में भी शय्या, अर्थात् आराधक के रहने का स्थान एवं संस्तर, 437 संवेगरंगशाला, गाथा ५२८३-५२६०. 438 439 440 विगरंगशाला, गाथा ५२६१-५३०८. संवेगरंगशाला, गाथा ५३०६-५३१३. आचारांगसूत्र २ / २ / ३. Jain Education International 441 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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