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________________ 190 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री "भगवतीआराधना के अनुसार प्रायोपगमनमरण वही क्षपक ग्रहण करता है, जिसकी आयु अति अल्प शेष रहती है। इसमें वह न तो स्वयं अपने शरीर की सेवा करता है, न दूसरों से सेवा करवाता है। इसमें भी प्रायोपगमनमरण के पूर्वोक्त दो भेद किए गए हैं।1426 पण्डितमरण की महिमा : संवेगरंगशाला में कहा गया है कि जिस जीव ने जीवनभर दुर्ध्यान करके पाप की गठरी बाँध ली हो, वह जीव भी शन्तिम समय में पण्डितमरण को प्राप्त करके शुद्ध हो जाता है। अनादिकाल से संसाररूपी अटवी में परिभ्रमण करता हुआ यह जीव तब तक इस अटवी से पार नहीं हो सकता है; जब तक उसे पण्डितमरण की प्राप्ति न हो। पण्डितमरण प्राप्त करके यह जीव उसी भव में मोक्ष को प्राप्त कर सकता है, अथवा देवगति का एक भव करके पुनः श्रावक-कुल में जन्म लेकर शुद्ध चारित्र पालकर तीसरे भव में मोक्ष प्राप्त कर लेता है, अधिकतम आठवें भव में तो मुक्त हो ही जाता है। 427 इस ग्रन्थ में यह भी उल्लेख किया गया है कि पण्डितमरण को वही प्राप्त कर सकता है, जो प्रासुक स्थान में रहता हो, जिसने शल्य का त्याग करके क्षमा को धारण किया हो, जो छःकाय जीवों का रक्षक हो, जो शत्रु एवं मित्र में समभाव रखता हो, जो जिन-आज्ञा का आराधक हो, जिसने कषायों पर विजय प्राप्त कर ली हो और मन-वचन और कर्म से शुद्ध हो। आगे, पण्डितमरण का उल्लेख करते हुए इसमें कहा गया है कि यह मरण सम्यग्दृष्टि जीवों को ही होता है, मिथ्यादृष्टि जीव को नहीं होता है, क्योंकि चिन्तामणिरत्न प्रत्येक जीव को प्राप्त नहीं होता है। अज्ञजीव बाल-मरण को प्राप्त होता है। वह बार-बार कठिन तप तो करता है, किन्तु निदान (फलाकांक्षा) आदि के कारण मुक्त नहीं हो पाता है; किन्तु धीर-पुरुष एक बार में ही उत्कृष्ट रूप से संयम की शुद्ध आराधना करके समाधिमरण के द्वारा मुक्ति को प्राप्त कर लेता है।428 यहाँ यह दृष्टव्य है कि जो रत्न के करण्डक के समान पण्डितमरण को प्राप्त कर लेता है, वह निश्चय से ही उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त करता है। यह मरण विशेष पुण्यानुबन्धी पुण्यवाले किसी जीव को ही प्राप्त होता है। जैसे- एक 426 भगवतीआराधना, पृ. ८८५. संवेगरंगशाला, गाथा ३७१०-३७१४. 428 संवेगरंगशाला, गाथा ३७१५-३७२२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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