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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 167 अब संवेगरंगशाला की जिन दस गाथाओं में कालचक्र की विधि प्रस्तुत की गई है, उसका यहाँ निरूपण करते हैं - "सर्वप्रथम अरिहंत परमात्मा की पूजा करके दाहिने हस्त की शुक्लपक्ष एवं बाएँ हस्त की कृष्णपक्ष के रूप में कल्पना करे। फिर कनिष्ठिका अंगुली के नीचे के पर्व में प्रतिपदा, मध्यम पर्व में षष्ठी एवं ऊपर के पर्व में एकादशी तिथि की कल्पना करे। इसी तरह शेष अंगुलियों में भी प्रदक्षिणा-क्रम से शेष तिथियों की कल्पना करें, यानी अनामिका अंगुली के तीनों पर्व में द्वितीया, तृतीया एवं चतुर्थी की, मध्यमा के तीनों पर्व में सप्तमी, अष्टमी और नवमी की तथा तर्जनी के तीनों पर्व में द्वादशी, त्रयोदशी और चतुर्दशी की कल्पना करे और अंगूठे के तीनों पर्व में पंचमी, दशमी और पूर्णिमा की कल्पना करे।"321 “जिस तरह दाएं हाथ के समस्त पर्वो में सर्व तिथियों की कल्पना की गई, उसी तरह बाएं हाथ के पर्व में भी कल्पना करे। फिर महासात्विक आत्मा एकान्त-प्रदेश में जाकर पद्मासन लगाकर, दोनों हाथों को कमल के आकार में जोड़कर, प्रसन्न और स्थिर मन वाला होकर, श्वेत वस्त्र धारण किए हुए, एक लक्ष्यवाला होकर, उस हस्तकमल में काले वर्ण के एक बिन्दु का चिन्तन करे। तत्पश्चात् हस्तकमल को खोलने पर जिस अंगुली के पर्व में शुक्ल अथवा कृष्ण पक्ष की तिथि में काला बिन्दु नजर आए, उसी तिथि के दिन निःसंदेह मृत्यु होगी- ऐसा समझना चाहिए। 322 ऐसा ही वर्णन योगशास्त्र के पाँचवें प्रकाश में श्लोक क्रमांक १२६ से १३४ में भी परिलक्षित होता है।" इसके अतिरिक्त संवेगरंगशाला में मृत्युकाल जानने के अनेक विवरण प्रस्तुत किए गए हैं। शरीर के अंगों एवं उपांगों के विकृत होने पर व्यक्ति की पृथक्-पृथक् समय पर मृत्यु होती है, इसकी विस्तृत चर्चा की गई है; पर विस्तार-भय से हम उनकी चर्चा यहाँ करना नहीं चाहते हैं, किन्तु थोड़ा विवेचन करना अनिवार्य समझते हैं, जैसे- “जिसकी नासिका सहसा टेढ़ी हो जाए, फुसी से युक्त हो, या सिकुड़ गई हो, अथवा छिद्रवाली हो गई हो, तो समझना कि वह अन्य जन्म को चाहता है। जिसके शरीर के घाव में से दुर्गंध आती हो, रक्त अति काला हो, जीभ के मूल में पीड़ा हो, हथेली में असह्य वेदना हो, जिसके हृदय में अतीव उष्णता रहे और पेट में अति शीतलता रहे, तो वह मनुष्य छः दिन में यमपुरी जाने वाला है- ऐसा जानें। 323 संवेगरंगशाला, गाथा ३२६७-३१७१. संवेगरंगशाला, गाथा ३२७२-३२७५. संवेगरंगशाला, गाथा ३२६४-३२६८. Jain Education International. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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