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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 153 ३. असाध्यरोग हो जाने पर, अर्थात् किसी प्रयत्न से भी जिसके ठीक होने की सम्भावना नहीं है, उपचार करनेवाले तथा करानेवाले भी थक गए हों, अत्यधिक पीड़ा के कारण व्यक्ति संज्ञाशून्य अवस्था में पड़ा हो तथा जीवनरक्षा का कोई भी प्रयत्न सम्भव नहीं रह गया हो, आदि । ४. अनिवार्य प्राणघातक परिस्थितियों में फंस जाने पर जहाँ से निकल पाना सम्भव नहीं हो, जैसे- हिंसक पशु या दुष्ट व्यक्ति के चंगुल में फंस गए हों, भयंकर जंगल, मरुस्थल आदि में भटक जाने पर वहाँ से निकल पाने की कोई भी सम्भावना नहीं बची हो । इसके अतिरिक्त कुछ और भी विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं, जिनमें धर्म से पतित होने की सम्भावना हो। इन सारी परिस्थितियों पर स्वयं व्यक्ति को ज्ञानपूर्वक सोचविचार कर उपयुक्त और अनुपयुक्त विवेक रखते हुए समाधिपूर्वक देहत्याग को स्वीकार करना चाहिए। ज्ञातव्य है कि असाध्य बीमारी या अति वृद्धावस्था में जो समाधिमरण किया जाता है, वह यावज्जीवन के लिए होता है, जबकि मारणान्तिक संकट / उपसर्ग उपस्थित होने पर जो समाधिमरण के प्रत्याख्यान किए जाते हैं, वह सागारी - संथारा या आतुर - प्रत्याख्यान कहलाता है, उस संकट के समाप्त हो जाने पर व्यक्ति पुनः अपना सामान्य जीवन जी सकता है। संलेखना या समाधिमरण ग्रहण करने की अनिवार्य शर्त यही है कि जब व्यक्ति को यह अनुभव हो कि अब मृत्यु सन्निकट है, तभी वह समाधिमरण ग्रहण कर सकता है, किन्तु मृत्यु की सन्निकटता का बोध कैसे हो, इस हेतु संवेगरंगशाला में कुछ उपाय बताए हैं, आगे हमने उनकी चर्चा की है। समाधिमरण लेने वाले की योग्यता : जैनधर्म में समाधिमरण या अन्तिम आराधना ग्रहण करना सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, क्योंकि समाधिमरण की साधना में साधक को कठिन तप करना पड़ता है और प्रत्येक व्यक्ति समभावपूर्वक कष्टों को नहीं सहन कर पाता है, इसलिए जैन - परम्परा में समाधिमरण ग्रहण करने की योग्यताएँ किसमें हैं, इसका उल्लेख भी जैन-आगमों में स्पष्ट रूप से प्राप्त होता है। संवेगरंगशाला 272 में जाति-कुल का भेदभाव रखे बिना राजा, स्वामी, सेनापति, मंत्री, कौटुम्बिक, आदि सभी को आराधना के योग्य स्वीकार किया गया है। साथ ही, जो आत्मचिन्तक, बुद्धिशाली, 272 १. संवेगरंगशाला, गाथा ८३३-८३७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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