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________________ ४२० जैन-दर्शन के नव तत्त्व least is living the best ऐसा सुंदर विचार है। कम से कम हिंसा करके ज्यादा से ज्यादा अहिंसा का पालन करना, यह जीवन का सर्वोत्तम सिद्धांत है। यह बात भगवान ने भी अपने साढ़े बारह वर्ष के दीर्घ मौन की समाप्ति के समय कही थी। 'मा हणो, मा हणो' - जिसे वेदों में भी ‘मा हिंस्यात् सर्व भूतानि' ऐसा कहा है। “अहिंसा" यह एक तीन अक्षरोंवाला छोटा-सा शब्द है। परंतु यह विष्णु के तीन चरणों से भी अधिक विशाल और व्यापक है। अखिल मानव जाति ही नहीं, वरन् संपूर्ण चर-अचर प्राणी जगत् इन तीन चरणों में समाया हुआ है। जहाँ अहिंसा है, वहाँ जीवन है। जहाँ अहिंसा का अभाव है, वहाँ जीवन का अभाव है। जिस दिन इस संसार में जीव ने जन्म लिया, उस दिन से अहिंसा का भी अस्तित्व है। जैन दर्शन के अनुसार सृष्टि पर प्राणी का अवतरण अनादि है इसलिए जैन दर्शन अहिंसा को भी अनादि मानता है। जीवन और अहिंसा का संबंध अनादि है। जहाँ अहिंसा है, वहाँ जीवन है और जहाँ जीवन है, वहाँ अहिंसा है, यह व्याप्ति नित्य-सत्य है।" अगर अहिंसा होगी तो सत्य टिकेगा, अचौर्य टिकेगा, ब्रहमचर्य और अपरिग्रह की भावना भी टिकेगी। जीवन के जितने आदर्श हैं, उन सब की प्राप्ति का साधन अहिंसा ही है। जिस प्रकार जमीन के आधार पर ही विशाल महल, ग्राम, नगर यानी संपूर्ण विश्व स्थित है, उसी प्रकार अहिंसा भी आध्यात्मिक साधन की आधारभूमि है। जीवन अल्पकालीन है, क्षणभंगुर है, इसलिए किसी भी जीव की हिंसा नहीं करनी चाहिए। हिंसा नहीं की तो पाप नहीं होगा और पाप न होने पर हम सुखी होंगे और आखिर परमतत्व मोक्ष को जा सकेंगे। अगर हमारे हाथों से हिंसा हो गई, तो पाप बढ़ेगा। क्योंकि हिंसा का फल कडुआ होता है। साथ ही संसार-भ्रमण बढ़ेगा, हम मुक्ति से दूर रहेंगे, यह सब समझकर अहिंसा का आचरण करें। जीवन के कठिन संघर्षों में कैसे सफल हो? सांसारिक और आध्यात्मिक समस्याएँ कैसे सुलझाये? आत्मा की मुक्ति के लिए साधना-मार्ग पर कैसे आरूढ़ हो? और जीव एवं जगत का रहस्य समझकर संवर धर्म की आराधना कैसे करे? इन सारे प्रश्नों के उत्तर अहिंसा की साधना में हैं। जीवों के मुख्य चार प्रकार हैं। आवान्तर प्रकार तो अनेक हैं, परंतु सब में श्रेष्ट मानव ही है। मानव विश्व का श्रृंगार है। संसार में मानव से श्रेष्ट कोई भी प्राणी नहीं है। असीम सुख में निमग्न देवता भी मानव से स्पर्धा नहीं कर सकते। ___मानव शक्ति और तेज का पुंज है। वह विश्व का भाग्यविधाता है। वह सार्वभौम सम्राट है। वह अपने तेज से विश्व को प्रकाशित करता है। उसने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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