SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 347
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२० जैन-दर्शन के नव तत्त्व जिन तीव्र कषायों से कर्म बांधे जाते हैं, वे अवश्य ही भोगने ही पड़ते हैं, अतः ऐसी प्रवृत्तियों से दूर रहना चाहिए। उद्वर्तना और अपवर्तना करण की उपयोगिता यह है कि जीव को इस प्रकार की प्रवृत्तियाँ करना चाहिए कि जिनसे दुष्कर्म कम हो और शुभ कमों की वृद्धि हो। 'संक्रमण करण' की उपयोगिता पाप-प्रकृति का पुण्य-प्रकृति में रूपान्तर करने की क्षमता में हैं। 'उदीरणा करण' का लाभ कर्म को प्रयत्नों द्वारा नैसर्गिक समय से पहले उदय में लाकर उनका फल भोगकर क्षय करने में है। उपशमना करण का लाभ प्रयत्नों द्वारा कर्म के उदय को निष्फल करना यह हैं। _इस प्रकार कर्म-विज्ञान का ज्ञान या करण ज्ञान है कर्म या भाग्य के निर्माण परिवर्तन, परिवर्धन, परिशमन, परिशोधन, रचना और संक्रमण करने की कला का ज्ञान है।.२ इस प्रकार कर्म की ये विविध अवस्थाएँ हमें यह बताती है कि आत्मा को अशुभ कर्म से दूर रहकर शुभ कर्म की ओर प्रवृत्ति करनी चाहिए। इससे ही जन्म-मरण का चक्र समाप्त होगा और आत्मा मोक्ष प्राप्त कर सकेगा। कर्म-चर्चा : कर्म विचार भारतीय दर्शन का प्राणतत्व है। वैदिक परंपरा में कर्म के संबंध में अनेक विचार मिलते हैं। वेदों में भी दैव या यदृच्छा मानी गई है। श्वेताश्वरोपनिषद् में कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद, यदृच्छावाद, भूतवाद आदि की चर्चा मिलती है। इन सब दर्शनों ने प्रजापति को सृष्टिकर्ता के रूप में माना है, फिर भी उसे कर्म के अनुसार ही फल देने वाला माना है। न्याय, वैशेषिक और सांख्य दर्शनों में यही मान्यता किसी न किसी रूप में प्रचलित है। अपूर्व, अदृष्ट, भाग्य, दैव, नसीब, तकदीर आदि शब्द किसी न किसी रूप में कर्म के ही सूचक है। . जैन दर्शन प्राचीन काल से कर्मवादी है। कर्म सिद्धान्त उल्लेख जैसा जैन दर्शन में मिलता है, वैसा अन्यत्र नहीं मिलता। जैनागमों और भाष्य-ग्रंथों में कर्मवाद के विभिन्न दृष्टिकोणों का सविस्तार विवेचन मिलता है। विशेषावश्यक भाष्य के गणधरवाद में कर्मवाद का विवेचन अधिक स्पष्ट और व्यवस्थित है। द्वितीय गणधर के वाद में कर्म के अस्तित्व की सिद्धि की गई है। (विशेषावश्यक १६०६-१६४२) इसमें कर्म को संसार का आधार और उसके उच्छेद को ही 'मुक्ति' कहा गया है। छटे गणधर की चर्चा में बंध-मोक्ष का स्वरूप, कर्म और जीव के सादि-अनादि संबंध और नौवें गणधर की चर्चा में से कर्म की शुभाशुभ प्रकृतियाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy