SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 323
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९६ जैन-दर्शन के नव तत्त्व मन्दता आदि रूपों से फलानुभव कराने वाली विशेषता भी निर्मित होती है। उस विशेषता को ही 'अनुभागबंध' कहते हैं।° कर्म का रस शुभ है या अशुभ है, तीव्र है या मन्द है, यह दिखाना 'अनुभाग बंध' का कार्य है। जिस प्रकार बकरी, गाय और भैंस आदि के दूध में तीव्र, मंद और मध्यम रूप में रस-विशेष होता है, उसी प्रकार कर्म-पुद्गल की तीव्र या मंद फलदान शक्ति ही 'अनुभाग बंध' हैं।" रस, अनुभाग, अनुभाव और फल ये समानार्थी शब्द है। कर्म के विपाक को 'अनुभाव बंध' भी कहते हैं। विपाक दो प्रकार का होता है - १) तीव्र परिणाम से बाँधे हुए कर्म का विपाक तीव्र होता है और २) मन्द परिणाम से बाँधे हुए कर्म का विपाक मंद होता है। कर्म जड़ होने पर भी पथ्य और अपथ्य आहार के समान जीव को अपनी क्रिया के अनुसार फल की प्राप्ति होती है। विविध प्रकार के फल देने की शक्ति को अनुभाव कहते हैं। कर्मानुरूप ही उसका फल मिलता है। ज्ञानावरणादि कर्मों का जो कषायादि परिणामजनित शुभ या अशुभ रस है, वह 'अनुभावबंध' हैं अथवा आठ कर्म और आत्म प्रदेशों के परस्पर एकरूपता के कारणभूत परिणाम को अनुभाग कहते हैं अथवा शुभाशुभ कर्म की निर्जरा के समय सुख-दुःख रूप फल देनेवाली शक्ति को 'अनुभागबंध' कहते हैं। अनुभाव (अनुभाग) बंध के चौदह प्रकार हैं, यथा सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव आदि अब इन चौदह प्रकारों की अपेक्षा से अनुभाग बंध का वर्णन आगे किया जावेगा। संक्षेप बद्ध कर्म की फल देने की शक्ति के तारतम्य को ही अनुभागबंध कहते हैं।३४ ४) प्रदेशबंध : प्रदेशबंध कर्म पुद्गलों का समूह हैं। प्रदेशबंध भी प्रकृतिबंध से ही होता है। प्रत्येक प्रकृति के अनन्त प्रदेश होते हैं। आठ कमों की प्रकृति भिन्न-भिन्न है। प्रत्येक कर्म प्रकृति के अनन्त प्रदेश होते हैं और वे जीव के प्रत्येक प्रदेश के साथ विशेष रूप से संयुक्त होते हैं। कर्मराशि का ग्रहण होने पर भिन्न-भिन्न स्वभाव में रूपांतरित होने वाली यह कर्मराशि स्वभाव के अनुसार विशिष्ट परिमाण में विभक्त होती है। यह परिमाण विभाग अर्थात् मात्रा ही 'प्रदेशबंध' है।५ जो पुद्गल स्कंध कर्मरूप से परिणत हुए है, उनका परमाणु रूप से परिमाण निर्धारित करना कि 'इतने परमाणु बांधे गए' यह 'प्रदेशबंध' हैं।६ दूसरे शब्दों में कर्मवर्गणा की अथवा कर्म परमाणुओं की हीनाधिकता को 'प्रदेशबंध' कहते हैं। कर्मवर्गणा के पुद्गल-दलिक जिस परिमाण में बंधते हैं, उसे परिमाण को 'प्रदेशबंध' कहते हैं अथवा कर्म के दल संचय (कर्मपुद्गल के परिमाण) अथवा कर्म और आत्मा के संश्लेष को 'प्रदेशबंध' कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy