SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 295
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६८ जैन दर्शन के नव तत्त्व मानसिक चिन्तन चाहे किसी प्रतिज्ञा के रूप में हो या संभावित दोषों की प्रत्यालोचना के रूप में हो, यह साधना को हृदय तक पहुँचाता है । " व्युत्सर्ग- तप के दो भेद हैं (१) द्रव्य - व्युत्सर्ग और (२) भाव - व्युत्सर्ग। द्रव्य - व्युत्सर्ग के चार उपभेद हैं - (१) गण-व्युत्सर्ग, (२) शरीर - व्युत्सर्ग, (३) उपधि - व्युत्सर्ग एवं (४) भुक्तपान - व्युत्सर्ग | भाव - व्युत्सर्ग के तीन प्रकार हैं- (१) कषाय- - व्युत्सर्ग, (२) संसार - व्युत्सर्ग और (३) कर्म - व्युत्सर्ग। " द्रव्य - व्युत्सर्ग के चार प्रकारों का स्पष्टीकरण इस प्रकार किया गया है (१) गण- व्युत्सर्ग- गण (समूह) का त्याग करना । श्रुतज्ञान और चारित्र्य की विशेष आराधना के लिए गण का त्याग कर अन्य गण में जाना अथवा एकाकी रहना । ( २ ) शरीर - व्युत्सर्ग- शरीर का त्याग करना । इसी का दूसरा नाम कायोत्सर्ग है / कायोत्सर्ग का मुख्य उद्देश्य दोष की विशुद्धि करना है। इस अवस्था में 'अन्नं इमं सरीरं अन्नो जीवुत्ति' अर्थात् शरीर अन्य तथा जीवात्मा अन्य है ऐसा अनुभव होना चाहिए । (३) उपधि-व्युत्सर्ग - संयम - साधना में मर्यादापूर्वक रखे हुए वस्त्र, पात्र आदि का त्याग करते जाना और अंत में अचेल अवस्था को प्राप्त करना । (४) भुक्तपान- व्युत्सर्ग खाने-पीने का त्याग करना । धीरे-धीरे उनका त्याग करते-करते ठीक समय पर सब खाने-पीने का त्याग करना भुक्तपान-व्युत्सर्ग की साधना है I - भाव - व्युत्सर्ग के तीन प्रकारों का स्ष्टीकरण इस प्रकार किया गया है. (क) कषाय- व्युत्सर्ग इसका अर्थ है क्रोध, मान, माया और लोभ इन कषायों को क्षीण करना और अन्त में समस्त कषायों का क्षय करना । (ख) संसार - व्युत्सर्ग इसका अर्थ है नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन गतियों का त्याग करना । अर्थात् इन चार गतियों के जो सोलह कारण हैं, उनका भी त्याग करना 'संसार - व्युत्सर्ग' है । इन चार गतियों के कारण ही संसार में परिभ्रमण होता रहता है, इसलिए उनका त्याग बताया गया है। (ग) कर्म - व्युत्सर्ग कर्मों का त्याग करना । ( १ ) ज्ञानावरण, ( २ ) दर्शनावरण, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) आयुष्य, (६) नाम, (७) गोत्र और (८) अन्तराय इन आठ कर्मों को नष्ट करने के अनेक उपाय शास्त्रों में बताये गये हैं। उन उपायों को आचरण में लाने पर कर्म-व्युत्सर्ग की साधना होती है । २ - Jain Education International - इस प्रकार द्रव्य - व्युत्सर्ग और भाव व्युत्सर्ग का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है । साधक प्रथमतः द्रव्य - व्युत्सर्ग की साधना करता है। आहार, वस्त्र, पात्र आदि का ममत्व कम करता जाता है । बाद में शरीर पर होने वाले मोह को कम For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy