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________________ १२३ जैन दर्शन के नव तत्त्व (४) स्वतन्त्रवाद . - स्वतन्त्रवादी पुण्य-पाप को स्वतन्त्र तत्त्व मानते हैं । स्वतन्त्रवादियों की दृष्टि से सुख का कारण पुण्य है और दुःख का कारण पाप है। सुख और दुःख दोनों कार्य हैं। सुख-दुःख का अनुभव एक ही समय नहीं होता इसलिए सुख-दुःख के कारण भिन्न-भिन्न होने चाहिए। अतः पाप और पुण्य दोनों स्वतन्त्र तत्त्व हैं। (५) स्वभाववाद - ६२ पाप-पुण्य की ये चारों कल्पनाएँ परस्पर विरोधी हैं इसलिए स्वभाववादी लोग कहते हैं कि पुण्य-पाप जैसा इस दुनिया में कुछ है ही नहीं । संसार में जो सुख-दुःख का वैचित्र्य दिखाई देता है, वह स्वभाव से होता है । इस दुनिया के सारे प्रपंच स्वभाव से ही होते हैं। विश्व वैचित्र्य, जन्म-मरण, सुख - दुःख की प्राप्ति की तीक्ष्णता, पशु-पक्षियों का वैचित्र्य, रंगबिरंगी सृष्टि यह सब स्वभाव के कारण ही है । स्वभाववाद का वर्णन गणधरवाद, जीवनसाधना और श्वेताश्वतरोपनिषद् आदि में उपलब्ध होता है। इन पाँच वादों में से चौथा स्वतंत्रवाद ( अर्थात् पुण्य और पाप को अलग-अलग तत्त्व मानना) ही उचित है । अन्य चारों वाद युक्तिपूर्ण नहीं हैंऐसा भगवान् महावीर स्वामी ने गणधर श्री अचल भ्राता से कहा है । चार वादों का निराकरण Jain Education International पुण्यवाद का निरास - केवल पुण्य को ही मानना उचित नहीं है क्योंकि सुख की अल्पता दुःख का कारण नहीं हो सकती । दुःख की वृद्धि अशुभ कर्म के प्रकर्ष से ही हो सकती है, पुण्य के अपकर्ष से नहीं । सुख का अनुभव पुण्य के उत्कर्ष के कारण है । इसी प्रकार दुःख के उत्कर्ष का कारण पुण्य के बजाय कुछ न कुछ तो होना ही चाहिए और वह अशुभ कारण पाप ही है। पुण्य का अपकर्ष होने पर इष्ट साधन की हानि हो सकती है, परन्तु इससे अनिष्ट साधन की वृद्धि नहीं हो सकती। जैसे सुवर्ण का घट बड़ा होने पर सुवर्ण का और छोटा होने पर लोहे का हो जाये ऐसा व्यवहार में दिखाई नहीं देता पापवाद का निरास पुण्यवाद का निराकरण जिस युक्तिवाद से किया गया है, उससे विपरीत युक्तिवाद से पाप का निराकरण होता है। जिस प्रकार पुण्य के अपकर्ष से दुःख नहीं हो सकता, उसी प्रकार पाप के अपकर्ष से सुख भी नहीं मिल सकता। अगर ज्यादा विष ज्यादा नुकसान करता है तो थोड़ा विष थोड़ा नुकसान करेगा ही । भला वह लाभप्रद कैसे हो सकता है ? इसलिए थोड़ा पाप थोड़ा दुःख देता है, परंतु सुख के लिए तो पुण्य की ही कल्पना करनी होगी। 1 संकीर्णवाद का निरास पुण्य या पाप की अभिवृद्धि पुण्य अथवा पाप का कारण नहीं हो सकती । पुण्य और पाप ये दोनों स्वतन्त्र तत्त्व हैं। अगर ऐसा नहीं माना जाये तो काय, वाक् तथा मन के योग के परिस्पंदन से उत्पन्न कर्म-प्रक्रियाओं की व्यवस्था ही नहीं जमेगी। क्योंकि एक समय में योग का शुभरूप अथवा अशुभरूप एक ही भाव हो सकता है। एक ही समय पुण्यरूप सुख और For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org - -
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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