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________________ - k ९७ जैन दर्शन के नव तत्त्व तैयार नहीं हुए, जब तक श्री जगदीशचन्द्र बोस ने अपने यंत्र द्वारा पूर्णतया सिद्ध करके नहीं दिखाया। उसी प्रकार पानी में भी जंतु (Germs) होते हैं इसलिए जैन साधु ठंडा पानी उपयोग में नहीं लाते। इस बात को वैज्ञानिकों ने माइक्रोस्कोप (Microscope) द्वारा देखने पर मान लिया । सत्य बात तो यह है कि अगर जैन-दर्शन का वैज्ञानिक रूप से गहराई में जाकर अध्ययन किया जाये तो विज्ञान - जगत् को अपूर्व लाभ होगा। उसी के साथ वैज्ञानिकों की अनेक समस्याएँ, जिन्हें सुलझाने के लिए वैज्ञानिक दिन-रात प्रयोग करने में संलग्न रहते हैं, सुलभता से सुलझाई जा सकती हैं। उन्नीसवीं शताब्दी तक वैज्ञानिक 'ईथर' को भी नहीं मानते थे। बाद में अनेक आविष्कार करके वे गति का माध्यम मान्य करने लगे। बाद में आइन्स्टाइन ने कहा कि 'ईथर' अभौतिक, अपारमाणविक, लोकव्याप्त, अदृश्य और अखण्ड द्रव्य है । किन्तु सहस्रों वर्ष पहले जब विज्ञान का भी उद्गम नहीं हुआ था तब सृष्टि के इस सूक्ष्मतम तत्त्व का वर्णन जैन - शास्त्रों में किया गया है। 1 जैन- दर्शन ने पाँच द्रव्यों के बारे में स्पष्ट कहा है कि धर्म गति देने वाला तत्त्व है, अधर्म स्थितितत्त्व ( रोकने वाला ) है । आकाश स्थान देने वाला तत्त्व है; काल परिवर्तनशील है और पुद्गल स्पर्श, गंध, रसयुक्त तथा रूपी (मूर्त) द्रव्य है शेष समस्त द्रव्य अमूर्त हैं। जीव और पुद्गल सक्रिय हैं, शेष द्रव्य निष्क्रिय हैं। इस प्रकार यह जैन- दर्शन की द्रव्य-व्यवस्था और उसमें वर्णित द्रव्यों का सारांश है। इसका विस्तृत विवेचन तत्त्वार्थराजवार्तिक, तत्त्वार्थसूत्र, तत्त्वार्थाधिगमसूत्र ( स्वोपज्ञभाष्य ) और जैन आगमों में मिलता है 1 १. २. ४. हरिभद्रसूरि षड्दर्शनसमुच्चय टीका १६२, पृ० २४८ यश्चैतस्माद्विपरीतानि विशेषणानि विद्यन्ते यस्यासावेतद्विपरीतवान् सोऽजीवः सन्दर्भ - Jain Education International समाख्यातः । कुन्दकुन्दाचार्य - पंचास्तिकाय गा० १२२, पृ० १८५ जाणादि पस्सदि सव्वं इच्छदि सुक्खं विभेदि दुखादो । कुव्वदि हिदमहिदं वा भुंजदि जीवो फलं तेसिं ।। १२२ ।। कुन्दकुन्दाचार्य - पंचास्तिकाय गा० १२५, पृ० १८८ सुहदुक्खजाणणा या हिदपरियम्मं च अहिदभीरुतं । जस्स ण विज्जदि णिच्चं तं समणा विंति अज्जीवं ।। १२५ ।। कुन्दकुन्दाचार्य - पंचास्तिकाय आगासकालपुग्गलधम्माधम्मेसु नात्थि जीवगुण । - गा० १२४, पृ० १८७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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