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________________ ७३ जैन-दर्शन के नव तत्त्व धर्म द्रव्य जीव और पुद्गल की गति में तटस्थ भाव से सहायक होता है। धर्म द्रव्य समस्त लोकों में व्याप्त है। वह नित्य है। वह अरूपी तथा असंख्यात प्रदेश से युक्त अस्तिकाय द्रव्य है। धर्मद्रव्य के समान अधर्मद्रव्य भी लोकव्यापी, अमूर्त, नित्य और अवस्थित है। परन्तु धर्मद्रव्य गति का कारणभूत होता है और अधर्म द्रव्य स्थिति (रोकने) का कारणभूत होता है। जीव और पुद्गल अधर्म द्रव्य की सहायता के बिना रुक नहीं सकते। अधर्म द्रव्य रुकने की प्रेरणा नहीं देता, परंतु जो रुक जाते हैं, उनकी सहायता करता है। जिस प्रकार गतिमान जीव और पुद्गल को धर्म का आश्रय है, उसी प्रकार स्थितिमान जीव और पुद्गल को अधर्म की सहायता की आवश्यकता है। इस द्रव्य की सहायता के बिना जीव और पुद्गल की स्थिति हो ही नहीं सकती।” अधर्म द्रव्य जीव और पुद्गल की स्थिति के तटस्थ हेतु हैं। जिस प्रकार वृक्ष की छाया राहगीर को पकड़ कर रोकती नहीं अपितु रुके हुए राहगीर को आश्रय देती है, उसी प्रकार गति-क्रिया करते समय जीव और पुद्गल को अधर्म द्रव्य रोकता नहीं, अपितु स्थिर हुए जीव और पुद्गल का वह आश्रय (आधार) बनता है। यही बात बृहद्रव्यसंग्रह में बताई गई है। “जिस प्रकार पृथ्वी चलने वाले पशु को रोकती नहीं और रुकने की प्रेरणा भी नहीं देती, परंतु रुके हुए पशु को आधार अवश्य देती है। उसी प्रकार अधर्म द्रव्य स्वयं द्रव्य को पकड़ कर स्थिर नहीं करता और स्थिर होने की प्रेरणा भी नहीं देता, लेकिन स्वयं स्थिर हुए द्रव्य को पृथ्वी के समान आश्रय देता है।"३३ इस लोक में जिस प्रकार पानी मछलियों के गमन के लिए निमित्त मात्र सहायक है, उसी प्रकार 'धर्म' द्रव्य जीव और पुद्गल के गमन के लिए सहायक है। मत्स्य का दृष्टान्त पंचास्तिकाय में दिया गया है। _जिस प्रकार मछलियों के यहाँ-वहाँ जाते समय पानी उनके साथ नहीं जाता और मछलियों को चलाता भी नहीं है, केवल उनके गमन में निमित्तमात्र सहायक है। उसी प्रकार जीव और पुद्गल धर्मद्रव्य के अभाव में गमन करने में असमर्थ हैं। जीव और पुद्गल के गतिक्रिया करते समय धर्मद्रव्य स्वयं उन्हें चलाता नहीं है और उन्हें प्रेरणा भी नहीं देता, केवल जीव और पुद्गल के गमन में निमित्तमात्र सहायक होता है।४।। जिस प्रकार संपूर्ण तिल में तेल व्याप्त है, उसी प्रकार संपूर्ण लोकाकाश में धर्मास्तिकाय व्याप्त है। धर्मद्रव्य और धर्मद्रव्य का अस्तित्त्व जैन-दर्शन के अलावा अन्य किसी भी दर्शन ने गति तत्त्व के रूप में (Medium of motion) स्वीकार नहीं किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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