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________________ हणुओ जम्मकहा ] भाग ३ : सङ्कलन । २०॥ ३२. पडिसुज्जउ त्ति अहयं, सुन्दरमायाएँ कुच्छिसंभूओ। वरहिययसुन्दरीए, भाया य महिन्दभज्जाए ॥ १०३ ॥ ३३. मह एस भइणिधूया, बाला चिरकालदिट्ठपम्हट्ठा । साभिन्नाणेहि पुणो, मुणिया सयणाणुराएणं ।। १०४ ।। ३४. नाऊण माउलं सा, रुवइ वणे तत्थ अञ्जणा कलुणं । घणदुक्खवेढियङ्गी, वसन्तमालाएँ समसहिया ॥ १०५॥ ३५. वारेऊण रुयन्ती, भणिओ पडिसुज्जएण गणियण्णू । नक्खत्त-करण-जोगं, कहेंहि एयस्स बालस्स ॥ १०६ ॥ ३२. प्रतिसूक इत्यहं सुन्दरमातृकुक्षिसम्भूतः। वरहृदयसुन्दरया भ्राता च महेन्द्रभार्यायाः ॥ ३३. मम एप भगिनी धूता वाला चिरकालदृष्टविस्मृता । साऽभिज्ञानः पुनः ज्ञाता स्वजनानुरागेण ॥ ३४. ज्ञात्वा मातुलं सा रोदिति बने तत्र अञ्जना करुणं । घनदुःखवेष्टिताङ्गी वसन्तमालया समाश्वसिता ।। ३५. वारयित्वा रुदन्ती भणितः प्रतिसूर्यकेन गणितज्ञः। नक्षत्रकरणयोगं कथय एतस्य बालस्य ।। ३२. सुन्दर माता की कोख से उत्पन्न मैं प्रतिसूर्यक नाम वाला महेन्द्र की भार्या वर-हृदयसुन्दरी का भाई हूँ। ३३. यह कन्या मेरी बहन की लड़की है। चिरकाल के बाद देखने के कारण यह विस्मृत सी हो गई थी, परन्तु स्वजन के अनुराग के कारण मैंने इसे पहचान लिया है। __३४. अपने मामा को पहचानकर वह अंजना उस अरण्य में करुण स्वर में रोने लगी। अत्यन्त दुःख से परिव्याप्त शरीरवाली वह वसन्तमाला के द्वारा आश्वस्त की गई। ३५. रोती हुई उसे शान्त करके प्रतिसूर्यक ने ज्योतिषी से पूछा कि इस बालक का नक्षत्र, करण एवं योग कहें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
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