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________________ ३३६ विश्वतत्त्वप्रकाशः [पृ. २०० मतसे तो धर्म-अधर्म गुण है अतः वे वहीं हो सकते हैं जहां उन का आश्रयभूत द्रव्य आत्मा हो । किन्तु जैन मत से धर्म-अधर्म गुण नही हैं, द्रव्य हैं अतः वे आत्मा से हमेशा संयुक्त रहें यह आवश्यक नही है । पृष्ठ २०१ - संकल्प, विकल्प, विचार आदि का साधन मन अथवा अन्तःकरण हृदय में अवस्थित है यह प्रायः सभी भारतीय दार्शनिकों का मन्तव्य है । किन्तु संकल्पादि इन मानसिक क्रियाओं के केन्द्र मस्तिष्क में हैं तथा रूप, रस आदि का ज्ञान ग्रहण करने के केन्द्र भी मस्तिष्क में हैं यह प्रायोगिक मनोविज्ञान का निर्विवाद निष्कर्ष है | शरीरविज्ञान के अनुसार हृदय केवल रुधिराभिसरण का केन्द्र है | अतः मन हृदयान्तर्भाग में स्थित है यह कथन अब विचारणीय प्रतीत होता है । पृष्ठ २०३ - ४ -- उत्कर्षसम जाति का उदाहरण पहले वेदप्रामाण्य की चर्चा में भी आया है ( पृ. ९९ - १०० ) वहां के टिप्पण इस प्रसंग में भी उपयुक्त सिद्ध होंगे | पृष्ठ २०४ -- आत्मा अणु आकार का है यह मत वेदान्तसूत्र में पूर्वपक्ष के रूप में विस्तार से प्रस्तुत किया है ( अध्याय २ पाद ३ सूत्र २१ - ३० ) तथा तद्विषयक टीकाओं में मुण्डकोपनिषद ( ३ | १ | ९ ), श्वेताश्वतर उपनिषद् ( ५/९ ), प्रश्न उपनिषद् ( ३६ ) आदि के वाक्यों से इस का समर्थन किया गया है । पृ. २०५ -- यहां जीव को राजा की और इन्द्रियों को वार्ताहरों की उपमा दी गई हैं । मनोविज्ञान के अनुसार इस उपमा में काफी तथ्य है । यद्यपि इन्द्रिय स्वयं अपना स्थान छोडकर वार्ताहर के समान अन्यत्र नही जाते तथापि इन्द्रियों से दृष्टि, स्पर्श, गन्ध आदि की संवेदनाएं मज्जातन्तुओं द्वारा मस्तिष्क तक पहुचाई जाती है यह अब प्रायः सर्वसम्मत तथ्य है । पृ. २०८ - सामान्य तथा समवाय इन तत्त्वों को न्याय वैशेषिक मत में नित्य तथा सर्वगत माना है । इन में समवाय के अस्तित्व का ही आगे खण्डन किया है ( परि ६४ ) | सामान्य का अस्तित्व तो एक तरह से जैन मत में मान्य है किन्तु उसे सर्वगत स्वीकार नही किया जाता । समन्तभद्र ने आतमीमांसा में इस का निर्देश किया है । इस विषय का विस्तृत विवरण न्यायावतार वार्तिक वृत्ति के टिप्पण में पं. दलसुख मालवणिया ने प्रस्तुत किया है. (पृ. २५०-५८)। १. सामान्यं समवायश्चाप्येकैकत्र समाप्तितः । अन्तरेणाश्रयं न स्यात् नाशोत्पादिषु को विधिः ॥ ६५ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001661
Book TitleVishwatattvaprakash
Original Sutra AuthorBhavsen Traivaidya
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherGulabchand Hirachand Doshi
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Literature
File Size9 MB
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