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________________ ५४. j श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् तथा पर्यायार्थिक एतत् उभय नयकी विवक्षा की तब " स्यात् भिन्नं स्यात् अवक्तव्यं च" अर्थात् वस्तु कथंचित् भिन्न कथंचित् अवक्तव्य है, यह पञ्चम भंगका वर्णन हुआ ॥ ५ ॥ १२ ॥ अथ षष्ठमङ्गोल्लेखः । अब छठवें भंगका प्रतिपादन करते हैं । द्रव्यार्थेनोभयादानादभिन्नं तदवाच्यकम् । युगपन्नयद्वयादानाद्भिन्नमभिन्नमवाच्यम् ॥ १३॥ भावार्थ:-- प्रथम द्रव्यार्थिक नयकी कल्पना करके उसके साथ पश्चात् उभय नयकी योजना की "तब स्यात् अभिन्नः स्यात् अवक्तयः" अर्थात् कथंचित् अभिन्न और कथंचित् अवक्तव्य इस छठे भंगकी प्रवृत्ति हुई और पुनः क्रमसे उभय नयकी विवक्षा की पश्चात् एक कालमें ही उभय नयकी विवक्षा की तब कथंचित् भिन्न, अभिन्न, अव कव्य इस सप्तम भंगी सिद्धि हुई । १३ ।। व्याख्या । तत्रादौ द्रव्यार्थिकनयकल्पना । तत एकदोमयनयार्पणं क्रियते । तदा कथंचिद्भिन्नमवक्तव्यमिति कथ्यते । इति षष्ठः । पुनरनुक्रमेण प्रथमं द्रव्यार्थिकपर्यायायिकेति नयद्वयकल्पना विधीयते । ततश्चैकदोमयनयार्पणं क्रियते तदा कथंचिद्भिन्नमभिन्नमवक्तव्यमिति मंगः सप्तमः समुत्पद्यत इति ॥ ७ ॥ १३ ॥ व्याख्यार्थः - षष्ठ ६ भंगमें आदि में केवल द्रव्यार्थिक नयकी विवक्षा की और उसके पश्चात् एक कालमें ही पर्यायार्थिक तथा द्रव्यार्थिक इन दोनों नयोंकी विवक्षा की तब कथंचित् अभिन्न तथा अवक्तव्य यह षष्ठ नय सिद्ध हुआ और प्रथम अनुक्रमसे पर्यायार्थिक नकी और उसके पश्चात् द्रव्यार्थिक नयकी विवक्षा की और पुनः एक समय में ही द्रव्यार्थिक तथा पर्यांयार्थिक इस उभय नयकी योजना की तत्र " स्यात् भिन्नम् अभिन्नम् अवक्तव्यं च" अर्थात् कथंचित् भिन्न, कथंचित् अभिन्न और कथंचित् अवक्तव्य इस सप्तम भंगकी उत्पत्ति हुई । ७ । ।। १३ ।। इमां सप्तभङ्ग दृढभ्यासयुक्तः सदा योऽभ्यसेत्तत्त्वदृष्ट्या विचार्य । Jain Education International क्रमाम्भोजसेवामवाप्यार्हतीं स भवेन्मुक्तियोग्योऽचिराद्भव्यजन्मा ॥ १४ ॥ भावार्थ:- इस सप्तभंगी नयका जो मनुष्य दृढ अभ्यासमें तत्पर होकर तत्त्वदृष्टिसे विचार करके सदा अभ्यास करेगा वह भव्य जन्मधारी प्राणी श्रीजिनभगवान् के चरणकमलकी सेवा भक्तिको पाकर शीघ्र मुक्तिके योग्य होगा ॥ १४ ॥ व्याख्या I एवमेका भेदपर्यायेऽभेदपर्याये च सप्तमङ्गीयोजना योजयितव्या । अथ शिष्यः प्रश्नयति 1 यतः भवेत्तत्रैकस्य मुख्यभावेन परस्य गौणभावेन सभङ्गी कृता पुनरित्थमेव सर्वत्र स्वामिन् यत्र नयद्वयविषयस्यैव विचारणा समुत्पद्यताम् परन्तु यत्र प्रदेश प्रस्थका For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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