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________________ २० ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् कथं व्यवहारनथो हि कार्यकारणभेदमेव मनुते । निश्रयनयो हि अनेककार्यकारणैर्युगपि द्रव्यमेकमेव स्वशक्तिस्वभावमस्तीत्यवधारयति । कदापि इत्थं नावधार्यते । तदा स्वभावभेदाद्रव्यभेदोऽपि संपद्य ेत । तस्मात्तत्तदेशकालादिकापेक्षया एकस्यानेककार्यकारणस्वभावमङ्गीकुर्वतां न कोपि दोषपोषः । कारणान्तरापेक्षापि स्वभावान्तर्भूता एवास्ति । तेन तस्यापि वैफल्यं न जायते । तथा शुद्धनिश्रयमताङ्गीकारे तु कार्यकारणकल्पनैव मिथ्या । यतः - प्रादावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथेति वचनात् । कार्यकारणकल्पनाविरहितं शुद्धमविकलमचलितस्वरूपं द्रव्यमस्तीति ज्ञेयम् ॥ ९ ॥ व्याख्यार्थ - पूर्व प्रसंग में कही हुई रीतिसे एक एक कार्यकी ओघशक्ति तथा समुचित शक्तिरूप जो शक्तियें हैं वे एक द्रव्यके अनेक प्राप्त होती हैं, और व्यवहारनयसे व्यवहृत ( व्यवहार वा उपयोगमें प्राप्त होनेसे वे ही शक्तियें कार्य तथा कारणका भेद सूचित करती हैं, क्योंकि व्यवहार नय कार्यकारणका भेद हो मानता है; और निश्चय (शुद्ध) नय तो अनेक कार्य तथा कारणों से युक्त होनेपर भी द्रव्य एक निजशक्ति स्वभाववाला है ऐसा निश्चय कराता है, और ऐसा निश्चय कभी भी नहीं कराता कि काकारणों भेदसे अनेक स्वभावयुक्त द्रव्य होता है। क्योंकि जब ऐसा माना जायगा तब स्वभाव-भेदसे द्रव्य-भेद भी प्राप्त हो जायगा । इसलिये उस उस देश उस उस काल आदिकी अपेक्षासे एक द्रव्यका अनेक कार्य कारण स्वभाव अंगीकार करनेकोई भी दोषका लेश नहीं है, और कारणान्तरकी अपेक्षा जो है वह भी द्रव्यके स्वभाव के अन्तर्गत ही है, इसलिये उसको भी निष्फलता नहीं होती और शुद्ध निश्चय नयके मतको स्वीकार करने पर तो कार्यकारणकी कल्पना ही मिथ्या है। क्योंकि “जो धर्म अथवा स्वभाव अर्थात् द्रव्यका अनेक स्वरूप आदि अन्त में नहीं है वह वर्त्त - मानमें भी वैसा ही है अर्थात् नहीं है ऐसा वचन है; इससे कार्यकारणकी कल्पना शून्य, अखंडित, तथा अविचलित स्वरूप एक ही द्रव्य है ऐसा जानना चाहिये ||९|| पूर्व शक्तिस्वरूपं द्रव्यं व्याख्यातम् । अथ च व्यक्तिरूपी गुणपर्यायौ वर्णयन्नाह । पूर्व प्रकरण में शक्तिस्वरूप द्रव्यका वर्णन किया गया, अब व्यक्तिरूप गुण तथा पर्याका वर्णन करते हुए अग्रिम सूत्र कहते हैं । स्वस्वजात्यादिभूयस्यो गुणपर्यायव्यक्तयः । शक्तिरूपो गुणः केषांचिन्मते तन्मृषागमे ॥१०॥ भावार्थ- सहभावी अथवा क्रमभावी कल्पनासे किये हुए निजस्वभावसे वर्त्तमान गुण तथा पर्यायोंके व्यक्ति अनेक प्रकारके हैं; और किन्हींके अर्थात् दिगम्बरमतानुसारियोंके मतसे गुण जो हैं वह शक्तिरूप ही है, परन्तु यह शास्त्रीय सिद्धान्तों से मिथ्या है ||१०|| व्याख्या । स्वस्वजात्या सहमाविक्रम भाविविकल्पनाकृति जस्वभावेन वर्तमाना गुणपर्याय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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