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________________ [ 221 द्रव्यानुयोगतर्कणा व्याख्या / शुद्धाशुद्धाथिके नाम्नि द्रव्याथिकनये समुच्चयेन विभावादिस्वभावान् विद्धि जानीहि / शुद्ध शुद्धद्रव्याथिकनये शुद्धस्वभावान् जानीहि / अशुद्ध ऽशुद्धस्वभावान जानीहि / शुद्ध शुद्धस्वभावाः स्युरशुद्ध ऽशुद्धस्वभावा इति ज्ञेयम् // 15 // व्याख्यार्थ-शुद्धाशुद्धार्थिक नामक द्रव्यार्थिक नयमें समस्त विभाव स्वभावोंको जानो और शुद्ध द्रव्यार्थिक नयमें शुद्ध स्वभावोंको जानो तथा अशुद्ध द्रव्यार्थिक नयमें अशुद्ध स्वभावोंको जानो। भावार्थ यह है कि शुद्ध द्रव्यार्थिकमें शुद्ध भाव तथा अशुद्ध द्रव्यार्थिकमें अशुद्ध भाव होते हैं ऐसा जानना चाहिये // 15 // असद्भूतव्यवहारादुपचारस्वभावकाः / इति स्वभावविज्ञानं कर्त्तव्यं शुभमिच्छता // 16 // भावार्थ:-असद्भूत व्यवहार नयसे उपचरित स्वभाव रहते हैं / इस प्रकार कल्याणके अभिलाषी जीवको स्वभावोंका विज्ञान करना चाहिये // 16 // व्याख्या / असद्भूतव्यवहारनयादुपचारस्वभावका उपचरितस्वभावा ज्ञातव्याः / इतीति समाप्ती / स्वभावविज्ञानं स्वभावनययोजना शुभ कल्याणं हितं आयूष्यं ज्ञानं चेच्छता अभिवषता कर्त्तव्यमिति // 16 // ___व्याख्यार्थः-असद्भूतव्यवहार नयकी अपेक्षासे सब उपचरित स्वभावोंको जानना चाहिये / सूत्रमें इति शब्द अध्यायको समाप्तिका बोधक है। और यह स्वभावोंमें नयोंकी योजना जिस पुरुषको कल्याण, हित, आयुष्य तथा ज्ञानको अभिलाषा है उसको करनी चाहिये // 16 // अनुपचरिताः स्वीयभावास्ते तु गुणाः खलु / एकद्रव्याश्रिता गुणाः पर्याया उभयाश्रिताः // 17 // भावार्थ:--जो अनुपचरित अपने भाव हैं वे गुण हैं। और वे गुण एक द्रव्यके आधार रहते हैं; और पर्याय उभयके आश्रित रहते हैं // 17 // व्याख्या / अत्र दिगम्बरप्रस्तावना वर्त्तते / कुत्रापि स्वसमयेऽप्युपस्कृता वर्तते परम्त्वत्र किमपि चिन्त्यं वर्तते तेन तद्दषणं निराचिकीर्षुराह / अनुपचरिता उपचारजिता ये निजकीयस्वभावास्ते गुणाः, गुणानां हि सहमावित्वादुपचारो न विद्यते / निष्कर्षस्त्वयम् स्वभावो हि गुणपर्यायाभ्यां मिन्नो न स्यात्तस्माद्योऽनुपचरितो भावः स एव गुण इति, अथ यश्चोपचरितः स पर्यायः कथ्यते / अतएव द्रव्याश्रिता गुणाः, उमयाश्रिताः पर्यायाः / तथोक्तमुत्तराध्ययने गाथाद्वारा-“गुणाणमासवो दव्वं एण दवसिया गुणा / लक्खणं पज्जयाणं तु उमओ अस्सिआ भवेत्ति / 1 / " // 17 // ___ व्याख्यार्थः--यहाँपर दिगम्बरमतका प्रस्ताव ( प्रसंग ) है / और यह प्रसंग कहीं श्वेताम्बरसिद्धान्तमें भी है, परन्तु इस विषयमें कुछ विचारणीय हैं, इसलिये उसके दूषणको दूर करनेकी इच्छासे कहते हैं / उपचारसे रहित जो अपने स्वभाव हैं वे गुण हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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