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________________ द्रव्यानुयोगतर्कणा [217 व्याख्या / असद्भूतव्यवहारे जीवमूर्त्तत्वमपि जीवस्य मूर्त्तत्वं जीवमूर्तस्वभाव इष्यत / अतएव अयमात्मा दृश्यते, अमुमात्मानं पश्यामीति व्यवहारोऽस्ति / तथानेन स्वमावेन "रक्तौ च पद्मप्रभवासुपूज्यो" इत्यादि वचनानि सन्ति / अथ च परममावग्राहकनये पुद्गलद्रव्यं विना द्रव्याणाममूर्त्तत्वं द्रव्यामूर्त्तत्वमाहितं स्थापितम् / अभ्यानि सर्वाण्यपि द्रव्याण्यमूर्तस्वमावन्तीत्यर्थः // 8 // व्याख्यार्थः-असद्भूतव्यवहार नयके मतमें जीवका भी मूर्त स्वभाव माना गया है। इसीसे 'यह आत्मा देख पड़ता है, इस आत्माको में देखता हूँ' इत्यादि व्यवहार होता है; और "श्रीपद्मप्रभ तथा श्रीवासुपूज्य ये दोनों तीर्थकर रक्त (लाल) वर्णके धारक हैं" इत्यादि वचन हैं। तथा परमभावग्राहक नयकी अपेक्षासे पुद्गलद्रव्यके विना द्रव्योंके अमूर्तस्वभाव रक्खा गया है अर्थात् पुद्गलद्रव्यके सिवाय अन्य सब द्रव्य अमूर्त स्वभावके धारक हैं। यह अर्थ है // 8 // उपचारात्पुद्गलेऽपि नास्त्यमूर्तस्वभावता / व्यवह्रियतेऽनुगमात्तदेव चोपचर्यते // 6 // भावार्थ:-पुद्गलमें उपचारसे भी अमूर्तस्वभावता नहीं है, क्योंकि अनुगमसे जिसका व्यवहार होता है उसी भावका उपचार भी होता है // 9 // व्याख्या / उपचारात्पुद्गलद्रव्येऽमूर्तस्वभावता नास्ति / यतश्चेतनसंयोगेन देहादी यथा चेतनत्वमुपचर्यते तथैवामूर्त्तत्वं नोपर्यते / तस्मादसद्भूतव्यवहारदपि पुद्गलस्या मूर्तस्वमावे न कथनीयः / प्रत्यासत्तिदोषणामूर्तस्वं तत्र कथं नोपचरितमभिति तदेवोपनादयन्नाह / व्यवहितेनुगमाद्यदेवानुमादेबन्धदोषाद्धावत्वं व्यवहियते तदेवोपचर्यते परन्तु सर्वधर्मस्योपचारो न स्यात्तथाचारोपे सति निमित्तानुसरणमनु निमित्तमनुसृत्यारोप इति न्यायो नाश्रयणीय इति भावः // 6 // व्याख्यार्थः-उपचारद्वारा भी पुद्गल द्रव्यमें अमूर्तस्वभावता नहीं है / इसीसे चेतनके संयोगसे जैसे देह आदिमें चेतनका उपचार किया जाता है उसी प्रकार अमूर्त्तके संयोगसे देहमें अमूर्त्तका उपचार नहीं होता है / इस कारणसे असद्भूतव्यवहारनयसे भी पुद्गल द्रव्यका अमूर्त स्वभाव है ऐसा कथन नहीं करना चाहिये / अब प्रत्यासत्ति दोषसे वहांपर अमूर्त्तताका उपचार क्यों नहीं करना चाहिये इसीका उपादान करते हुए "व्यवह्रियतेऽनुगमात्" इत्यादि उत्तरार्द्धसे कहते हैं कि अनुगम अर्थात् एकसंबंधदोषसे जिस भावका व्यवहार होता है उसी भावका उपचार भी होता है परन्तु सर्वथा सर्व धर्मके अभावमें सब धर्मका उपचार नहीं होता / ओर इससे यह सिद्ध हुआ कि जहां आरोप करना हो वहाँ आरोपके निमित्तका अनुसरण करना चाहिये / और आरोप करके पश्चात् निमित्तका अनुसरण करना इस न्यायको नहीं धारण करना चाहिये / यह भाव है // 9 // 28 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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