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________________ १९४ ] श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् निजरूपेण भावरूपतास्ति । यथा परस्वभावेन नास्तिस्वभावानुभवनं तथा निजभावेन स्वभावानुभव नमपि जायते । अत उभयत्र कार्यरूपोऽस्तिस्वभाव इति ॥ १३ ॥ व्याख्यार्थः - यहाँ अर्थात् गुणके प्रस्ताव (प्रसंग ) में प्रथम अस्तिस्वभाव यह है; कि-वस्तु में स्वरूपसे अर्थात् अपने रूपसे जो अर्थरूपता अर्थात् द्रव्यकी यथार्थता है; वही स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, और स्वभाव से भावरूपता है; ऐसा जानना चाहिये । क्योंकिस्वभावसे अस्तित्व तथा परभावसे नास्तित्वका कथन है । भावार्थ- जैसे अपने भावसे अस्तित्व स्वभाव है; ऐसे ही परके भावसे नास्तित्वस्वभाव भी वस्तुमें है । इसलिये यहां अस्तिस्वभाव कारणीभूत है । वह किस प्रकार से है; कि - स्वभाव ही वहाँ निजरूप से भावरूपता है । जैसे परके भावसे नास्तिस्वभावका अनुभव होता है, वैसे ही निजभावसे स्वभावका भी अनुभवन होता है; इस हेतुसे अस्तित्व तथा नास्तित्व इन दोनोंमें कार्यरूप अस्ति स्वभाव है ॥ १३ ॥ न चेदित्थं तदा शून्यं सर्वमेव भवेदिदम् । परभावेन सत्त्वे तु सर्वमेकमयं भवेत् ॥ १४ ॥ भावार्थ:- यदि ऐसा न हो अर्थात् अपने भावसे अस्तित्व न माना जावे तो यह संपूर्ण जगत् शून्य होजाय, और परभावसे यदि सत्त्व अङ्गीकार करें तो सब एकमय अर्थात् एकरूप ही होजाय ॥ १४ ॥ व्याख्या । चेद्यदि अस्तिस्वभावो नाङ्गीक्रियते परभावापेक्षया यथा नास्तित्वं तथा स्वभावापेक्षयापि नास्तित्वावलम्बने सति सर्वं जगदिदं प्रपंचमानव्यतिकरमपि शून्यं भवेत् । तस्मात्स्वद्रव्यापेक्षया अस्तिस्वभावः सर्वथैवाङ्गीकरणीयः । परभावेन परद्रव्याद्यपेक्षयापि नास्तित्वस्वभावोऽप्यवश्य मङ्गीकत्तव्य इत्यर्थः । तथा च परमावेनापि सत्तामस्तिस्वभावमङ्गीकुर्वतां सर्वस्वरूपेणास्तित्वे जायमाने च जगदेकरूपं भवेत् । तत्त सकलशास्त्रव्यवहारविरुद्धमस्ति । तस्मात्परापेक्षया नास्तिस्वभाव एव समस्ति । अथ सत्ता तु स्वाभावेन वस्तुविषयं ज्ञापयति, अतः सत्तेति सत्यमस्ति । असत्ता तु स्वज्ञानेन परमुखनिरीक्षणं कुरुते ततः कल्पनया ज्ञानविषयत्वेन च असत्तो त्यसत्यमस्ति । इत्थं बौद्धानां मतं वर्त्तते ॥ १४ ॥ व्याख्यार्थः-- यदि अस्तिस्वभावको नहीं कहते हो तो जैसे परभावकी अपेक्षा से नास्तित्व है; वैसे ही स्वभावकी अपेक्षासे नास्तित्वका ग्रहण होजानेसे यह सब जगत् अर्थात् प्रपंच्यमान व्यतिकर भी शून्य हो जायगा । इस कारण से स्वकीय द्रव्य, क्षेत्रआदिकी अपेक्षा से अस्तिस्वभावको अवश्यमेव मानना चाहिये, और इसी प्रकार परभावसे अर्थात् परद्रव्यआदिकी अपेक्षासे नास्तिस्वभाव भी अवश्य स्वीकृत करना चाहिये यह तात्पर्य है । और परभावसे अर्थात् अन्यके द्रव्य क्षेत्रआदिको अपेक्षासे अस्तिस्वभावको स्वीकार करनेवालोके मत से सर्व स्वभावसे अस्तित्व सिद्ध होजानेपर संपूर्ण जगत् एकरूप ही होजायगा, और सर्वथा समस्त जगत्का एकरूप हो जाना सब शास्त्रोंसे विरुद्ध है, इसलिये परकी अपेक्षासे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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