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________________ ( १४ ) उक्त ग्रन्थमें शास्त्रकार महोदयने सुगमतासे मन्दबुद्धि जीवोंको द्रव्यज्ञान होनेके अर्थ "गुणपर्ययवद्व्य म्" इस महाशास्त्र तत्त्वार्थसूत्रके अनुकूल द्रव्य, गुण और पर्यायोंका ही विशेष वर्णन किया है और प्रसंगवश 'स्यादस्ति' 'स्यान्नास्ति' आदि सप्त भंगोंका और दिगम्बराचार्यवर्य श्रीदेवसेनस्वामीविरचित नयचक्रके आधारसे नय, उपनय तथा मूलनयोंका भी विस्तारसे वर्णन किया है; जो कि विषयसूचीसे विदित होगा। वर्तमान संस्कृतानभिज्ञ बुद्धिमान् जीवोंको अतिशय ज्ञानप्रद इस ग्रंथद्वारा तेरह लाख जैनियोंमेंसे प्रायः तेरह जैनियोंको भी परिपूर्ण लाभ नहीं मिलता हुआ देखकर यथार्थ नामधारक "श्रीपरमश्रुतप्रभावकमंडल बंबई" के प्रबन्धक चतुर महाशयोंने इस शासको व्याकरणाचार्य श्री ठाकुरप्रसादजीशर्मा द्विवेदीके हस्तमें अनुवाद करनेके अर्थ प्रदान किया और उक्त पंडितजीने भी इसका अनुवाद करके उनके मनोरथ को सफल कर दिया । परन्तु अनुवादक महाशयके स्थानान्तर होजानेसे इसके संशोधनका भार मंडलके व्यवस्थापक महाशयने मुझको दिया, जो कि मैंने यथाशक्ति किया है। इसमें यदि कोई भूल हुई हो तो पाठकगण क्षमा करें। इस शास्त्रके संशोधनमें जयपुरस्थ संवेगी साधुवर श्रीशिवरामजी महाराजने अनेक प्रकारको सहायता दी है, अतः मैं उनका कृतज्ञ हूँ। अन्तमें परमश्रुतप्रभावकमंडलके सभासदों और व्यवस्थापक शा० रेवाशंकरजी जगजीवनजी जोहरीको धन्यवाद देता हूं कि जो इस सच्चे धर्मकार्यमें परिश्रम कर जगत्का उपकार कर रहे हैं । इत्यलम् । स्थान जयपुर शुभमिति कार्तिक वदी १२ रविवार सं. १९६३ विक्रम. संशोधक और निवेदक विनयावनत पं. जवाहरलाल साहित्यशास्त्री दि० जैन. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001655
Book TitleDravyanuyogatarkana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhojkavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1977
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Religion, H000, & H020
File Size19 MB
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