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________________ २३० परिशिष्ट स्वार्थनिश्चायकत्वेन प्रमाणं नय इत्यसत् । स्वार्थैकदेशनिर्णीति लक्षणो हि नयः स्मृतः ॥४॥ नायं वस्तु न चावस्तु वस्त्वंशः कथ्यते यतः । नासमुद्रः समुद्रो वा समुद्रांशो यथोच्यते ॥५॥ तन्मात्रस्य समुद्रत्वे शेषांशस्यासमुद्रता । मुद्रा वा स्यात्तत्त्वे क्वाऽस्तु समुद्रवित् ||६|| समाधान - जो प्रकृष्ट विशुद्धिवाला होता है वह पूज्य होता है और जो प्रकृष्ट विशुद्धिवाला नहीं होता वह पूज्य नहीं होता । प्रकृष्ट विशुद्धिके विना प्रमाण अनेकधर्मधर्मी स्वभावरूप सकलवस्तुका कथन नहीं कर सकता, और विशुद्धिकी कमीके बिना नय वस्तुके एकदेश मात्रका कथन नहीं कर सकता । यदि ऐसा होता तो प्रमाणकी तरह नय भी सकलादेशी हो जाता और नयकी तरह प्रमाण भी विकलादेशी हो जाता । अतः नयकी अपेक्षा प्रकृष्ट विशुद्धिसे युक्त होनेसे प्रमाण पूज्य माना गया है । शंका - ज्ञानरूप प्रमाण पूज्य हो सकता है । किन्तु विवाद तो प्रमाण शब्दको लेकर है कि उक्त सूत्रमें 'नय शब्दसे प्रमाण शब्दको पहले क्यों स्थान दिया गया ! < समाधान-ज्ञानरूप प्रमाणके पूज्य होनेसे उसका वाचक प्रमाणशब्द भी पूज्य माना जाता है । आगे कहते हैं कि नय प्रमाण नहीं है स्व और अर्थका निश्चायक होनेसे नय प्रमाण ही है, ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि स्व और अर्थके एक देशको जानना नयका लक्षण है । शंकाकारका कहना है कि अपने और बाह्य अर्थके निश्चायक ज्ञानको प्रमाण कहते हैं । नय भी अपनेको और बाह्य अर्थको जानता है, अतः वह प्रमाण हो है । और ऐसा होनेसे प्रमाण और नयमें कोई भेद नहीं है । तब उनको पूज्यता और अपूज्यताकी चर्चा करना ही व्यर्थ है । किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि यह कह आये हैं कि प्रमाण सकल वस्तुग्राही होता है और नय विकलवस्तुग्राही होता है । अतः प्रमाण स्वार्थ निश्चायक है और नय स्वार्थके एक देशका निश्चायक है। यही दोनोंमें भेद है । शंका-स्व और अर्थका एकदेश यदि वस्तु है और उसे नय जानता है तो नय प्रमाण ही हुआ, क्योंकि वस्तुको जानना ही प्रमाणका लक्षण है। और यदि स्व और अर्थका एकदेश वस्तु नहीं है, अवस्तु है तो उसको जाननेवाला नय मिथ्याज्ञान ही हुआ, क्योंकि अवस्तु के विषय करनेवाले ज्ञानको मिथ्याज्ञान कहते हैं । उक्त शंकाका परिहार करते हैं वस्तुका एकदेश न तो वस्तु है और न अवस्तु है। जैसे समुद्र के अंशको न तो समुद्र कहा जाता है और न असमुद्र कहा जाता है। यदि समुद्रका एक अंश समुद्र है, तो शेष अंश असमुद्र हो जायेगा । और यदि समुद्रका प्रत्येक अंश समुद्र है तो बहुतसे समुद्र हो जायेंगे और ऐसी स्थिति में समुद्रका ज्ञान कहाँ हो सकता है ? जैसे समुद्रके एक अंशको समुद्र माननेपर या तो समुद्रके शेष अंशोंको असमुद्रता प्राप्त होती है या उनको भी समुद्र माननेपर बहुतसे समुद्र हो जाते हैं । यदि समुद्रके एक अंशको असमुद्र कहा जाता है, तो समुद्रके शेष अंश भी असमुद्र हो जायेंगे और ऐसी स्थिति में कहीं भी समुद्रका व्यवहार नहीं हो सकेगा । उसी तरह नयका विषयभूत वस्तुका एकदेश वस्तु नहीं है, क्योंकि उसे वस्तु का प्रसंग आता है । या फिर वस्तुके एक-एक अंशको एक-एक तस्तु माननेपर वस्तुओंके बहुत्वका अनुषंग आता है । वस्तुका एकदेश अवस्तु भी नहीं है, क्योंकि उसे अवस्तु माननेपर वस्तुके शेष अंशोंको भी अवस्तुत्व माननेपर वस्तुके शेष अंशोंमें अवस्तुस्व १. 'समुद्रबहुत्वं वा स्यात्तच्चेत्काऽस्तु समद्रवित्' मुद्रितप्रतो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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