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________________ १४४ द्रव्यस्वभावप्रकाशक उवसमखयमिस्साणं तिण्हं ऍक्को वि गहु असब्भूदो । गोवत्सव्वं एवं 'सोवि गुणो जेण उवयरिओ ॥ २९२॥ दु णयपक्खं मिच्छा तं पिय णेयंतदव्वसिद्धियरं । सियस समारूढं जिणवयणविणिग्गयं सुद्धं ॥ २९३॥ अप्पर सुविरुद्धा सव्वे धम्मा फुरंति जीवाणं । जाव ण सियसावेक्खो गहिओ वत्थूण सब्भावो ॥ २९४ ॥ जं जं मुणदि सदिट्ठी सम्मगरूवं खु होदि तं तं पि । जह इह वयणं मंतं मंतीणं सिद्धमंतेण ॥ २९५ ॥ औपशमिक, क्षायिक और मिश्र ( क्षायोपशमिक ) इन तीनों भावोंमें से कोई भी भाव अद्भूत नहीं है, ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि ये सब भी उपचरित हैं ।। २९२ ।। विशेषार्थ - - पहले गाथा ११५ के द्वारा कह आये कि जीवका जो स्वभाव कर्मोंके क्षयसे प्रकट नहीं हुआ है वही परमभावग्राहोनयको दृष्टिमें जीवका स्वभाव है । उसी बातको लक्ष्य में रखकर यहाँ कर्म उपशम, क्षय और क्षयोपशमसे होनेवाले भावोंको भी उपचरित कहा है, क्योंकि उनके साथ में उपशम आदिको उपाधि लगी हुई है । इसीसे द्रव्य संग्रहमें व्यवहारनयसे आठ ज्ञान और चार दर्शनोंको जीवका लक्षण कहा है और निश्चयनयसे शुद्ध दर्शन और शुद्ध ज्ञानको जीवका लक्षण कहा है। ज्ञान और दर्शनके भेद तो औपाधिक हैं, स्वाभाविक नहीं हैं । औपाधिक भाव आत्माका स्वभाव कैसे हो सकता है ! इस गाथामें पाठभेद पाया जाता है । कुछ प्रतियोंमें अन्तिम चरण 'जुत्तीणयपक्ख संभवा जम्हा' है । यदि जुत्तिके स्थान में उत्ति पाठ हो तो अर्थ होगा --यतः यह कथन नयपक्षको दृष्टिसे है । अर्थात् औपशमिक आदि तीनों भाव आत्मा नहीं हैं, यह कथन न दृष्टिसे है। इसे सर्वथा रूपसे नहीं लेना चाहिए, यही बात आगे कहते हैं- Jain Education International [ गा० २९२ - जिनवाणी से निकले हुए शुद्ध 'स्यात्' शब्द से युक्त नय पक्ष मिथ्या नहीं होता, बल्कि वस्तुस्वरूपकी सिद्धि करता है ।। २९३ ॥ जब तक 'स्यात्' पदको अपेक्षासे वस्तुके स्वभावको ग्रहण नहीं किया जाता, तभी तक जीवोंके सभी धर्म परस्परमें विरुद्ध प्रतीत होते हैं ।। २९४ ।। किन्तु सम्यग्दृष्टि जो-जो जानता है वह वह सत्य होता है। जैसे वचन मान्त्रिकद्वारा सिद्ध किये जाने पर मन्त्र बन जाता है ।। २९५ ।। विशेषार्थ- -मन्त्र भी एक वाक्य ही होता है । मन्त्र शास्त्र के वेत्ताके द्वारा उसे सिद्ध किये जानेपर वह मन्त्र बन जाता है । वैसे ही सम्यग्दृष्टि जो कुछ जानता है वह सब यथार्थ होता है, किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि यदि सम्यग्दृष्टिने अँधेरे में पड़ी रस्सीको साँप समझ लिया तो वह भी सत्य है । बाह्य कारणोंसे जो संशयादि ज्ञान होते हैं वे तो मिथ्या कहलाते ही हैं; चाहे वे सम्यग्दृष्टि के हों या मिथ्यादृष्टिके । किन्तु वस्तुतत्त्वके सम्बन्ध में सम्यग्दृष्टि जो कुछ जानता है वह यथार्थ ही जानता है, क्योंकि उसकी दृष्टि सम्यक् एकान्तरूप होती है; मिथ्या एकान्तरूप नहीं होती । जो एकान्त अन्य धर्मनिरपेक्ष होता है उसे मिथ्या एकान्त कहते हैं और जो एकान्त अन्य धर्म सापेक्ष होता है उसे सम्यक् एकान्त कहते हैं । इसीसे सम्यक् एकान्तरूप नयदृष्टि के साथ अन्य धर्मोका सूचक 'स्यात्' पद रहता है जो बतलाता है कि वस्तु केवल इस एक धर्मवाली हो नहीं है, किन्तु उसमें अन्य धर्म भी हैं । वस्तुके जिस धर्मको शब्द द्वारा कहा जाता है वह धर्म मुख्य हो जाता है; शेष धर्म उस कालमें गौण हो जाते हैं । इस तरह गौणता - मुख्यता से ही वस्तु- धर्मोकी सिद्धि होती है । बौद्ध कहता है सब क्षणिक हैं और सांख्य कहता है सब नित्य हैं । ये दोनों ही एकान्त दृष्टियाँ मिथ्या हैं — क्योंकि न तो वस्तु सर्वथा नित्य ही है और न सर्वथा क्षणिक हो है । यदि १. एवं जुत्ती णयपक्खसंभवा जम्हा अ० क० ख० ज० मु० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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