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________________ -१४५ ] . नयचक्र तत्र जीवपुद्गलयोः पर्यायभेदमधिष्टानं चाह सम्वत्थ अस्थि खंधा बादरसुहमा वि लोयमझम्मि । थावर तहेव सुहुमा तसा हु तसनाडिमज्झम्मि ॥१४३॥ त्रसनाल्युत्सेधं लोकस्वरूपं चाचष्टे अह 'उढ्ढे लोयंता चउरंसा ऍक्करज्जुपरिमाणा। 'चउदहरज्जुच्छेधा लोयं सयतिण्णितेयालं ॥१४४॥ 'विगयसिरो कडिहत्थो ताडियजंघो जुवाणरो उड्ढो । तेणायारेण ठिओ तिविहो लोगो मुणेयन्वो ॥१४५॥ उठाकर लोककी ऐसी व्युत्पत्ति की है कि उसमें कोई दोष नहीं आता । सर्वज्ञने सब द्रव्योंको पर्यायोंको जहाँ देखा वह लोक । सब द्रव्य तो लोकमें ही है,लोकके बाहर नहीं है । अतः यह व्युत्पत्ति दोषहीन है । जब छह द्रव्योंके समूहका नाम लोक है तो लोक कार्य हुआ और द्रव्य उसके कारण हुए। किन्तु यह कार्यकारणभाव व्यवहारमूलक ही है,क्योंकि लोककी रचना सादि नहीं है। अनादि है। फिर भी पर्यायदृष्टिसे लोकको कार्य कहा जा सकता है। आगे जीव और पुद्गलकी विभिन्न पर्यायोंका तथा उनके अवस्थानका कथन करते हैं लोकके मध्यमें सर्वत्र बादर और सूक्ष्म स्कन्ध रहते हैं । उसो तरह सूक्ष्म और बादर स्थावर जीव तथा त्रसजीव भी रहते हैं। किन्तु त्रसजीव त्रसनालीमें ही रहते हैं ॥१४३।। विशेषार्थ-लोकमें पुद्गल और जीवद्रव्य भी रहते हैं। दोनों ही द्रव्योंकी संख्या अनन्त है। पुद्गलकी स्कन्धरूप पर्याय बादर भी होती है और सूक्ष्म भी। सूक्ष्म और बादरस्कन्ध समस्त लोकमें भरे हए हैं। संसारी जीव स्थावर और त्रसके भेदसे दो प्रकारके है । स्थावर भी बादर और सूक्ष्म होते हैं। किन्तु त्रसजीव बादर ही होते हैं। बादर और सूक्ष्म स्थावर भी पुद्गल स्कन्धोंकी तरह समस्तलोकमें रहते हैं। किन्तु सजीव केवल असनालीमें ही रहते हैं। आगे सनालीको ऊंचाई और लोकका स्वरूप कहते हैं -- नीचेसे लेकर ऊपर लोकके अन्तपर्यन्त त्रसनाली है। वह चौकोर है, एकराजू उसका विस्तार है और चौदहराजू ऊँचाई है। तथा लोकका क्षेत्रफल ३४३ राजू है ॥१४४॥ एक युवा मनुष्य सिर ऊँचा करके दोनों पैरोंको फैलाकर और दोनों हाथोंको कमरपर रखकर खड़ा हो, उसका जैसा आकार होता है वैसा ही आकार तीन प्रकार के लोकका जानना ॥१४५॥ विशेषार्थ-लोकका आकार दोनों हाथोंको दोनों ओर कटिप्रदेशपर रखकर तथा पैर फैलाकर खड़े हुए मनुष्यके समान बतलाया है। गाथामें 'विगयसिरो' पाठ है उसका अर्थ सिररहित होता है क्योंकि विगतका अर्थ रहित प्रसिद्ध है। किन्तु ऐसा अर्थ आगम विरुद्ध है क्योंकि लोकका आकार सिरसहित पुरुषके आकारकी तरह कहा है। स्वर्गोके ऊपर जो नौ अवेयक है वे लोक पुरुषको ग्रीवा ( गर्दन ) के स्थानपर पड़ते हैं, इसलिए उनका नाम ग्रैवेयक है। और सिद्ध शिला मस्तकाकार पड़ती है । अतः हमने विगतशिरका १. उड्ढतिलोयंता-अ० ख० मु० । 'लोयबहुमज्झदेसे तरुम्मिसारं व रज्जुपदरजुदा । तेरस रज्जुस्सेहा किचणा' होदि तसणाली ॥६॥'-तिलोयपण्णत्ति, २ अ० । 'लोयबहुमज्झदेसे रुक्खे सारव रज्जुपदरजदा। चोद्दसरज्जुत्तुंगा तसणाली होदि गुणणामा ॥१४३।।' -त्रिलोकसार । २. चउदह सा उच्छेधे आ० अ० ज० । ३. 'कटिस्थकरयुग्मस्य वैशाखस्थानवतिनः । बिति पुरुषस्यायं संस्थानमचलस्थिते. ॥८॥'-हरि० पु०, ४ सर्ग। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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