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________________ [गा० १०९ द्रव्यस्वभावप्रकाशक 'जो जीवदि जीविस्सदि जीवियपुवो हु चदुहि पाणेहिं । सो जीवो णायव्वो इंदिय बलमाउ उस्सासो॥१०९।। जीवे भावाभावो केण पयारेण सिद्धि संभवई। अह संभवइ पयारो सो जीवो पत्थि संदेहो ॥११०॥ हैं मुक्त जीवोंके कोई भी जीवसमास नहीं होता,क्योंकि न वे एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय आदि होते हैं। न पर्याप्तक आदि होते हैं और न तिथंच मनुष्य आदि हैं। ये सब भेद तो गति, इन्द्रिय और कायको लेकर होते हैं । मुक्त जीवोंके ये सब नहीं होते। मार्गणाएं भी १४ होती है-गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहार। ये सब भी संसारी जीवोंमें ही पायी जाती हैं । सिद्धोंमें तो इनमेंसे ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व ही होते हैं। क्योंकि ये तीनों आत्मिक गुण है। जो इन्द्रिय, बल, आयु, श्वासोच्छ्वास इन चार प्राणोंके द्वारा जीता है, आगे जियेगा और पहले जिया था, उसे जीव जानना चाहिए ॥१०९॥ विशेषार्थ—यह जीवके जीवत्व गुणकी व्याख्या जीव शब्दको व्युत्पत्ति द्वारा की गयी है । जो जिये वह जीव । और जिसके द्वारा जीता है उन्हें कहते हैं-प्राण । प्राण दस है-पांच इन्द्रियां, तीन बल, एक आयु और एक उच्छ्वास। इनमेंसे एकेन्द्रिय जीवके चार ही प्राण होते हैं-एक स्पर्शनेन्द्रिय, एक कायबल, एक आयु और एक उच्छ्वास । दोइन्द्रिय जीवके रसनेन्द्रिय और वचनबल होनेसे छह प्राण होते हैं । तेइन्द्रिय जीवके नाणेन्द्रिय अधिक होनेसे सात प्राण होते हैं। चौइन्द्रिय जीवके चक्षुइन्द्रिय अधिक होनेसे आठ प्राण होते हैं । असंज्ञि पंचेन्द्रिय जीवके श्रोत्र इन्द्रिय अधिक होनेसे नो प्राण होते हैं और संज्ञो पंचेन्द्रिय जीवके मनोबल अधिक होनेसे दस प्राण होते हैं । अतः इन प्राणों के द्वारा जो वर्तमानमें जीता है, भूतकालमें जिया था और भविष्यकालमें जियेगा वह जीव है। इस तरह तीनों कालोंमें जीवन अनुभव करनेवालेको जीव कहते हैं। इस व्युत्पत्तिके अनुसार सिद्धोंमें भी जीवत्व सिद्ध होता है,क्योंकि संसार अवस्थाम वे भी जीते थे। शायद कोई कहे कि तब तो सिद्धों में जीवपना औपचारिक हुआ, किन्तु मुख्यरूपसे वास्तविक जीवपना तो सिद्धोंमें ही माना जाता है। तो इसका समाधान यह है कि भावप्राण, ज्ञान और दर्शनका अनुभवन करनेसे सिद्धोंमें वर्तमानमें भी जीवपना है, अतः कोई दोष नहीं है ।। जीवमें भाव और अभावकी सिद्धि किस प्रकारसे संभव है ? यदि ऐसा प्रकार संभव है तो वह जीव है. इसमें कोई सन्देह नहीं है ।।११०॥ _ विशेषार्थ-भाव अर्थात् सत्स्वरूप द्रव्यका द्रव्यरूपसे विना नहीं होता और अभाव अर्थात् जो असत् है उसका द्रव्यरूपसे उत्पाद नहीं होता । इस तरह सत्के विनाश और असत्के उत्पाद बिना ही सत् द्रव्य अपने-अपने गुणपर्यायों में उत्पाद व्यय करते हैं। जैसे घीकी उत्पत्ति होनेपर सत् गोरसका विनाश नहीं होता और गोरससे भिन्न किसी असत् पदार्थान्तरका उत्पाद नहीं होता। किन्तु सत्का विनाश और असतका उत्पाद किये बिना ही गोरसके ही स्पर्श, रस, गन्धरूप आदि परिणमनशील गुणोंमें पूर्व अवस्थाका विनाश और उत्तर अवस्थाका उत्पाद होनेसे नवनीत पर्याय नष्ट हो जाती है और घी पर्याय उत्पन्न हो जाती है। इसी तरह समस्त द्रव्योंमें नवीन पर्यायकी उत्पत्ति होनेपर सत्का विनाश नहीं होता और असत्का उत्पाद नहीं होता। किन्तु सत्का विनाश और असत्का उत्पाद किये बिना ही द्रव्योंके परिणमनशील गुणोंमें पहलेकी पर्यायका विनाश और बादकी पर्यायका उत्पाद हुआ करता है। जैन सिद्धान्तमें जीव आदि छह द्रव्य है। १. पाणेहि चदुहिं जीवदि जीविस्सदि जो हु जीविदो पुव्वं । सो जीवो पाणा पुण बलमिंदियमाउ उस्सासो ॥३०॥-पञ्चास्ति । 'तिक्काले चदु पाणा इंदियबलमाउ आणपाणो य । ववहारा सो जीवो णिच्छयणयदो दु चेदणा जस्स ॥३॥'-द्रव्यसं० । २. जीवो भावा-अ० क. ख. मु. 'एवं भावमभावं भावाभाव अभावभावं च। गुणपज्जऐहिं सहिदो संसरमाणो कुणदि जीवो ॥२१॥'--.-पञ्चास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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