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________________ २२ अगाइजिणिंदचरिय मैं तो समझती थी कि मेरा ऋषभकुमार जंगल में गया है इससे उसको तकलीफ होगी परन्तु मैं देख रही हैं कि ऋषभकुमार तो बड़े आनन्द में है और उसके पास तो बहुत ठाठ लगा हुआ है । मैं वृथा मोह कर रही थी। इस प्रकार अध्यवसायों की शुद्धि के कारण माता मरुदेवी ने धनघाती कर्मों का क्षय कर के केवलज्ञान, केवलदर्शन उपार्जन कर लिया। उस समय आयु कर्म का भी अन्त आ चुका था सब कर्मों का नाश कर माता मरुदेवी ने मोक्ष प्राप्त किया। भगवान को वन्दन कर भरत भगवान के समसरण में बैट गये। भगवान ने उपदेश दिया। भगवान का उपदेश सुनकर भरत महाराजा के पुत्र ऋषभसेन ने पाँच सौ पुत्रों और सात सौ पौत्रों के साथ भगवान के पास दीक्षा ग्रहण की । ब्राह्मी ने भी अनेक स्त्रियों के साथ भगवान के पास दीक्षा ग्रहण की । उस समय साध, साध्वी श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ की भगवान ने स्थापना की । ऋषभमेन आदि ८४ पुरुषों को त्रिपदी का उपदेश देकर गणधर पद पर स्थापित किया । केवलज्ञान के पश्चात् भगवान एक हजार वर्ष कम एक लाख पूर्व तक जनपद में विचरण कर धर्मोपदेश द्वारा अनेक भव्य जीवों का उद्धार करते रहे । अपना निर्वाण काल समीप जानकर भगवान दस हजार मुनियों के साथ अष्टापद पर पधारे । वहाँ सबने अनशन किया। छह दिन तक उनका अनशन चलता रहा । माघ कृष्णा त्रयोदशी के दिन अभिजित नक्षत्र का चन्द्र के साथ योग होने पर शेष चार कर्मों का नाशकर भगवान निवणि पद को प्राप्त हुए । इन्द्र आदि देवों ने भगवान का अग्नि संस्कार किया । फिर नन्दीश्वर द्वीप में जाकर देवी-देवताओं ने भगवान का निर्वाण कल्याण मनाया । भरत चक्रवर्ती ने भगवान के निर्माण स्थल पर एक विशाल जिन मन्दिर का निर्माण किया। मन्दिरों में सर्व रत्नमय प्रतिमा की स्थापना की । भरतचक्रवर्ती-- सम्राट भरत विनीता में रह कर राज्य का संचालन करने लगे । एक बार उनकी आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ । भरत ने चक्ररत्न का पूजन कर बड़ा उत्सव मनाया । उत्सव समाप्ति के बाद भरत ने षखण्ड पर विजय पाने के लिए विनीता से गंगा के दक्षिण तट पर पूर्व दिशा में स्थित मागधतीर्थ की ओर प्रयाण किया । वे चतूरंगिणी सेना के साथ मागध तीर्थ पहुंचे । वहाँ मगध तीर्थाधिपति देव की सहायता से समस्त मगध प्रदेश पर विजय प्राप्त की । वहाँ से भरत ने वरदाम तीर्थ की ओर प्रस्थान किया । वरदाम तीर्थ में वरदाम तीर्थ कुमारदेव को ओर प्रभास तीर्थ में प्रभासकुमारदेव को प्रसन्न कर उनके प्रदेश पर अधिकार कर लिया । इसी प्रकार सिन्धुदेवी, वैताढ्य गिरिकुमार और कृतमालदेव को प्रसन्न कर उनके प्रदेश को भी जीत लिया । उसके पश्चात भरत राजा ने अपने सुषेण नामक सेनापति को सिन्धु नदी के पश्चिम में स्थित निष्कुट प्रदेश को जीतने के लिए भेज दिया । सुषेण महापराक्रमी और अनेक म्लेच्छ भाषाओं का पण्डित था । वह अपने हाथी पर बैठकर सिन्धु नदी के किनारे पहुँचा और वहाँ से चमड़े की नाव द्वारा नदी में प्रवेश कर सिंहल बर्बर अंगलोक चिलायलोक यवन द्वीप आरबक रोमक, अलसंड, पिक्खुपुर, कालमुख और जोनक (पवन) नामक म्लेच्छों तथा उत्तर वैताढ्य में रहने वाली म्लेच्छ जाति और दक्षिण-पश्चिम से लेकर सिन्धु सागर तक के प्रदेशों को तथा सर्व प्रवर कच्छ देश को जीत लिया । सुषेण के विजयी होने पर अनेक जनपद और नगर आदि के स्वामी सेनापति की सेवा में अनेक आभूषण, भूषण, रत्न-वस्त्र आदि बहुमल्य भेंट लेकर उपस्थित हुए। उसके बाद सुषेण सेनापति ने तिमिस्त्र गुहा के दक्षिण द्वार के कपाटों का उद्घाटन किया । इसके बाद भरत चक्रवर्ती अपने मणि-रत्नों को लिए तमिस्त्र गुहा के दक्षिण द्वार के पास गये और भित्ति पर काकणि रत्न से उसने ४९ मण्डल बनाये । वहाँ से उत्तर द्वार से निकल कर भरत अपात नामक किरातों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001593
Book TitleJugaijinandachariyam
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorRupendrakumar Pagariya, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1987
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size8 MB
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