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________________ जुगाइजिणिंदचरियं एक बार श्रीमती अपने महल पर खड़ी थी कि उसी समय समीपस्थ उद्यान में गुणधर नामक एक मुनि को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । केवल्य महोत्सव करने के लिए देवगण आकाश मार्ग से आवागमन कर रहे थे । आकाश मार्ग से आते जाते देव समूह को देख श्रीमती को पूर्व भव का स्मरण हो आया । श्रीमती ने धात्री को अपने पूर्वभव का वृतान्त कहा और तदनुसार एक पट तैयार किया जिसमें अपने पूर्व जन्म का सारा वृत्तान्त चित्रित किया । उस चित्र पट को जहाँ वज्रसेन का जन्म दिवस मनाने हेतु अनेक देशों के राजकुमार आ जा रहे थे वहाँ भेजा । राजकुमार वज्रजंघ जो पूर्वभव में ललितांग देव था उधर से निकला । उसकी दृष्टि चित्रपट पर पड़ी । चित्रपट को देखते ही उसे पूर्व जन्म का स्मरण हो आया । उसने चित्रपट में चित्रित सारी घटनाएँ धात्री को कह सुनाई । धात्री ने भी वास्तव में यह श्रीमती का पूर्वजन्म का पति है या नहीं यह जानने के लिए अनेक प्रश्न किये उसका यथार्थ उत्तर मिलने पर उसे यह निश्चय हो गया कि यही श्रीमती के पूर्व जन्म का पति है । धात्री ने श्रीमती के पिता वज्रसेन से सारी बात कह सुनाई । राजा वज्रसेन ने वज्रजंघ के साथ श्रीमती का विवाह कर दिया। (चउपन्न महापुरुष चरित्र में जातिस्मरण का उल्लेख नहीं आता । वहाँ स्वयं पिता ने श्रीमती के विवाह के लिए स्वयंवर मंडप की रचना की । श्रीमती ने पूर्वभव के स्नेह से वज्रजंघ के गले में वरमाला पहनाई । श्रीमती अपने पति के साथ लोहार्गल नगर में आई । दोनों सुखपूर्वक रहने लगे।) श्रीमती के पिता वज्रसेन चक्रवर्ती तीर्थंकर थे । समय होने पर लोकान्तिक देवों ने आकर उन्हें उद्बोधित किया । सांवत्सरिक दान के बाद अपने बड़े पुत्र पुष्कलपाल को राज्य देकर उन्होंने दीक्षा ले ली केवल ज्ञान के बाद उन्होंने धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया। कुछ दिनों के बाद स्वर्णजंघ वज्रजंघ को राज्यगद्दी पर अभिषिक्त कर दीक्षित हो गया । वज्रजंघ न्यायपूर्वक राज्य का संचालन करने लगा। कुछ दिनों के बाद पुष्कलपाल के कुछ सामन्त विद्रोही हो गये और राजाज्ञा का उल्लंघन करने लगे । उसने विद्रोहियों को दबाने के लिए श्रीमती के साथ वज्रजंघ को बुलाया ने के लिए दूत भेजा । वज्रजंघ श्रीमती के साथ रवाना हुआ रास्ते में सरवण नामक वन में दृष्टिविष रहते थे। मार्ग में मरे जानवरों द्वारा उन्हें इस बात का पता चला । वह अन्य मार्ग से पुण्डरीकिणी पहँचा । सामन्तों पर उसने विजय प्राप्त की । राजा ने दोनों का सन्मान किया । वज्रजंघ श्रीमती के साथ वापस अपने नगर की ओर चला । मार्ग में उसने सुना कि किसी महामुनि को केवल ज्ञान हआ है। उनके प्रभाव से सौ का दृष्टिविष नष्ट हो गया है । यह सुन वज्रजंघ उसी मार्ग से चला । मार्ग में सागरसेन और मुनिसेन नामक अनगारों के दर्शन किये । (दोनों मुनि संसार अवस्था में वज्रजंघ के भाई थे । ) उसने मनियों का उपदेश सुना । उपदेश से उसे वैराग्य हो आया और उसने लोहाजेल पहुँचने पर दीक्षा लेने का निश्चय किया । वहाँ से रवाना होकर वज्रजंघ अपने नगर पहुंचा। इधर वज्रजंघ के पुत्र ने सोचा कि पिताजी जीते जी मुझे राज्य नहीं देंगे अत: यही योग्य है कि पिता को किसी उपाय से मारकर सिंहासनारूढ होऊँ । यही सोचकर उसने उसी रात्रि को वनजंघ के महल में जहरीला धुआँ फैलाया । जिसकी गन्ध से वज्रजंघ और श्रीमती दोनों की मृत्यु हो गई। शुभशील गणी के भरतेश्वर बाहबलि वत्ति में विष देने का उल्लेख है । चौपन महापुरुष चरित्र में कहा है कि राजा को अपने मस्तक के श्वेत बालों को देख वैराग्य उत्पन्न हुआ और उसने दूसरे दिन दीक्षा लेने का निश्चय किया । पित हृदय से अनभिज्ञ विषधम के प्रयोग से इसने माता पिता को मार डाला । जबकि जिनसेनीय महापुराण में भगवान ऋषभ के इस भव का वर्णन इस प्रकार है-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001593
Book TitleJugaijinandachariyam
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorRupendrakumar Pagariya, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1987
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size8 MB
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