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________________ ( ८४ ) उक्त मत-भेदोंमें शिक्षाव्रतोंकी संख्याके चार होते हुए भी दो धाराएँ स्पष्टतः दृष्टिगोचर होती हैं। प्रथम धारा श्रावकप्रतिक्रमण सूत्र नं. १ की है, जिसके समर्थक कुन्दकुन्द जैसे महान् आचार्य हैं। इस परम्परामें सल्लेखनाको चौथा शिक्षाव्रत माना गया है। दूसरी धाराके प्रवर्तक आचार्य उमास्त्राति आदि हैं, जो कि मरणके अन्तमें की जानेवाली सल्लेखनाको शिक्षाव्रतोंमें ग्रहण न करके उसके स्थानपर भोगोपभोग-परिमाणव्रतका निर्देश करते हैं और अतिथिसंविभागको तीसरा शिक्षाव्रत न मानकर चौथा मानते हैं । इस प्रकार यहाँ आकर हमें दो धाराओंके संगमका सामना करना पड़ता है। इस समस्याको करते समय हमारी दृष्टि श्रावकप्रतिक्रमण सूत्र नं १ और नं० २ पर जाती है, जिनमेंसे एकके समर्थक आ० कुन्दकुन्द और दूसरेके समर्थक आ० वसुनन्दि हैं। सभी प्रतिक्रमणसूत्र गणधर-ग्रथित माने जाते हैं, ऐसी दशामें एक ही श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रके ये दो रूप कैसे हो गये, और वे भी कुन्दकुन्द और उमास्वातिके पूर्व ही, यह एक विचारणीय प्रश्न है। ऐसा प्रतीत होता है कि भद्रबाहुके समयमें होनेवाले दुर्भिक्षके कारण जो संघभेद हुआ, उसके साथ ही एक श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रके भी दो भेद हो गये। दोनों प्रतिक्रमण सूत्रोंकी समस्त प्ररूपणा समान है। भेद केवल शिक्षाव्रतोंके नामोंमें है। यदि दोनों धाराओंको अर्ध-सत्यके रूपमें मान लिया जाय तो उक्त समस्याका हल निकल आता है । अर्थात् नं०१ के श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रके सामायिक और प्रोषधोपवास, ये दो शिक्षाव्रत ग्रहण किये जावें, तथा २ के श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रसे भोगपरिमाण और उपभोग परिमाण ये दो शिक्षाबत ग्रहण किये जावें । ऐसा करनेपर शिक्षाव्रतोंके नाम इस प्रकार रहेंगे-१. सामाजिक, २. प्रोषधोवास,३. भोगपरिमाण और ४. उपभोगपरिमाण । इनमेंसे प्रथम शिक्षाव्रतके आधारपर तीसरी प्रतिमा है और द्वितीय शिक्षावतके आधारपर चौथी प्रतिमा है, इसका विवेचन हम पहले कर आये हैं। । उक्त निर्णयके अनुसार तीसरा शिक्षाक्त भोगपरिमाण है। भोग्य अर्थात् एक बार सेवनमें आनेवाले पदार्थोंमें प्रधान भोज्य पदार्थ हैं। भोज्य पदार्थ दो प्रकारके होते हैं-सचित्त और अचित्त। साधुत्व या संन्यासकी ओर अग्रसर होनेवाला श्रावक जीवरक्षार्थ और रागभावके परिहारार्थ सबसे पहिले सचित्त शाक, फलादि पदार्थों के खानेका यावज्जीवनके लिए त्याग करता है और इस प्रकार वह सचित्तत्याग नामक पाँचवीं प्रतिमाका धारी कहलाने लगता है। इस प्रतिमाका धारी सचित्त जलको भी न पीता है और न स्नान करने या कपड़े धोने आदिके काममें ही लाता है। उपरि-निर्णीत व्यवस्थाके अनुसार चौथा शिक्षाव्रत उपभोगपरिमाण स्वीकार किया गया है। उपभोग्य पदार्थोंमें सबसे प्रधान वस्तु स्त्री है, अतएव वह दिनमें स्त्रीके सेवनका मन, वचन, कायसे परित्याग कर देता है । यद्यपि इस प्रतिमाके पूर्व भी वह दिनमें स्त्री सेवन नहीं करता था, पर उससे हँसी-मजाकके रूपमें जो मनोविनोद कर लेता था, इस प्रतिमामें आकर उसका भी दिनमें परित्याग कर देता है और इस प्रकार वह दिवामैथुनत्याग नामक छठी प्रतिमाका धारी बन जाता है। इस दिवामैथुनत्यागके साथ ही वह तीसरे शिक्षाव्रतको भी यहाँ बढ़ानेका प्रयत्न करता है और दिनमें अचित्त या प्रासुक पदार्थोंके खानेका व्रती होते हुए भी रात्रिमें कारित और अनुमोदनासे भी रात्रिभुक्तिका सर्वथा परित्याग कर देता है और इस प्रकार रात्रिभुक्ति-त्याग नामसे १. ये दोनों श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र क्रिया-कलापमें मुद्रित हैं, जिसे कि पं० पन्नालालजी सोनीने सम्पादित किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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