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________________ श्रावकाचार-संग्रह विस्तरेण हतं देध्यं विभजेदष्टभिस्तथा। यच्छेषं स भवेदायः सो ध्वजाद्याख्ययाष्टधा ॥६३ ध्वजो धूमो हरिः श्वा गौः खरेभौ वायसोऽष्टमः । पूर्वादिदिक्षु चाष्टायो ध्वजादीनामवस्थितिः ॥६४ स्वे स्वे स्थाने ध्वजः श्रेष्ठो गजः सिंहस्तथैव च । ध्वजः सर्वगतो देयो वृषं नान्यत्र दापयेत् ॥६५ वृष सिहं गजं चैव खेटकर्वटकोटयोः । द्विपः पुनः प्रयोक्तव्यो वापीकूपसरस्सु च ॥६६ मृगेन्द्रमासने दद्याच्छयनेषु गजं पुनः । वृष भोजनपात्रेषु छत्रादिषु पुनर्ध्वजम् ॥६७ अग्निवेश्मसु सर्वेषु गृहे वह्नयुपजीविनाम् । धूमं च योजयेत् किञ्च श्वानं म्लेच्छादिजातिषु ॥६८ गृह-भमिके दैर्ध्य (लम्बाई) को विस्तार (चौड़ाई) से गुणा करनेपर जो क्षेत्रफल हो उसे आठसे भाजित करे, जो शेष रहे वह आय होता है। वह आय ध्वज आदिके भेदसे आठ प्रकारका है ।।६३॥ वे आठ आय ये हैं-ध्वज, धूम, सिंह, श्वान, वृषभ, खर, हस्ती, और अष्टम वायस ( काक ) इन आठों प्रकारके आयोंकी अवस्थिति पूर्व आदि आठों दिशाओंमें क्रमसे जानना चाहिए ॥६४॥ आयोंकी अवसिथिति और फलको द्योतक संदृष्टि इस प्रकार है संख्या १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ आय ध्वज धूम सिंह श्वान वृषभ खर गज वायस दिशा पूर्व अग्नि दक्षिण नैऋत्य पश्चिम वायव्य उत्तर ईशान --- - - --- -- - फल शुभ अशुभ शुभ अशुभ शुभ अशुभ शुभ अशुभ अपने-अपने स्थानमें उक्त ध्वज श्रेष्ठ हैं; इसी प्रकार गज और सिंह भी श्रेष्ठ हैं। ध्वज आय सर्वत्र श्रेष्ठ हैं । वृषभको अपने स्थानके सिवाय अन्यत्र नहीं देना चाहिए ॥६५॥ वृषभ, सिंह और गज चिह्नको खेट और कर्वट वसतियोंके कोटोंपर करना चाहिए। तथा गज, आय कूप, (वापी) और सरोवरपर प्रयुक्त करना चाहिए ॥६६।। बैठनेके आसनपर सिंह आय देवे और सोनेकी शय्यापर गज आय देवे। भोजनके पात्रोंपर और छत्र आदिपर ध्वज आय देना चाहिए ॥६७।। सभी अग्निगृहों (रसोई घरों) पर, तथा १. धय-धूम-सीह-साणा विस-खर-गय-धंख-अट्ठ आय इमें। विश्वकर्म प्रकाश २, श्लोक ५२-५८ पुवाइ धयाइ ठिई फलं च नामाणुसारेण ॥ (वास्तुसार १, ५२,) २. धय गय सीहं दिज्जा संते ठाणे धओ अ सव्वत्थ । ३. गय-पंचाणण-वसहा खेडय तह कव्वडाईसु ॥५४॥ वावोवतडागे सयणय गओय आसण सीहो। वसहो भोअणपत्ते छत्तालंबे धओ सिट्ठो ॥५५॥ विस-कुंजर-सीहाया नयरे पासाय-सव्वगेहेसु । साणं मिच्छाईसुं घंखं कारु अगिहाईसु ।।५६॥ धूमं रसोइठाणे तहेव गेहेसु वण्हिजीवाणं । रासह वसाणगिहे धय-गय-सीहाउ रायगिहे ॥५७॥ (वास्तुसार १, ५४-५७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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